SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ SonawanewaR RAPos/aaaaaaaaaaaa विशेषहि, बलना सुरनी ऊपजे ए। जे हुए मुनि श्रप्रमत्त, तिहनें सागर, अर्द्ध ऊण थिति संपजे ए ॥५२॥ जसु ते सुर न बसंत, आधा सागर, परिमिति थिति वरते सदा ए। पुवर समरंत, | तिणि सुर ते पुण, बलिये बलिए ए कहा ए तिणि कारणि असाय, टालिय गुरु नणिवो, वहिवो || योग तणो करे ए। ते मुनिवर समुदाय; श्रुत आराधीय, हेले नवसागर तरे ए॥ ५३॥ (दुहा.) - व्युग्राहिक असताश्या, कहिये चोथो नेद ॥ श्रुत बलि गुरुमुख संनली, हिवे जाणिज्यो । सन्नेद ॥ ५४॥ म्लेष्ठादिक नरवश्तणो, महायुद्ध जां होय ॥ वसतिथकी आसन्न नर, श्वी कलहें । जोय ॥ ५५ ॥ पर्व वासें रज जां लगी, ऊमे फागुण मासि ॥ असलाइ तां लगी हुए, जो जो हिये विमासि ॥ ५६ ॥ (दाल भुजंगी छंद जेवी.) ...... देशनो अधिपति विपति पामे तदा, होय असलाइ अवर बेसे तदा ॥ सूत्रनो जणण करिये किक/p/openepaopowe
SR No.600329
Book TitleSurdipikadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharyadi, Mangaldas Lalubhai
PublisherMangaldas Lalubhai
Publication Year1913
Total Pages412
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy