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अ०सि०
अस्वा० सित्तरी ॥३२
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गगन थकी रजरेणु वरसे, तेह निरंतर त्रिणि दिवस ऊपर जो दीसे ॥ तो असज्माइ जा-|| णवी जां लगी तां सीम, सूत्र नणण गुणिवा निषेध श्म पाले नीम ॥ २१॥ घण वरसंते || बुदबुदाकारें जिणिवारें, बिहु दिन ऊपर होय जाणि असजाय तिवारें॥ वरसे बुद बुद रहित मेह सत्रेह निरंतर, तिह असजाइ होय पंच दिन यकीय अंतर ॥ २५ ॥ न्हानी धारे वरसतो जब न रहे मेह, सग वासर उपरांत हुश् असजाइ एह ॥ संयमघातक एह पंच जाणिवा प्रकार, पहिले परहसमुत्थतणो असजाय विचार ॥ २३ ॥ टाले नणवो जेह साधु पाले जिणाण, निरते मा-|| रगें चालता लहिये निर्वाण ॥ हिव उत्पातक तणिय विगति कहिशु संखेवी, रुधिर मांसनी वृष्टि एह जूजुश्य कहेवी ॥ २४ ॥ असलाइ हुए एहतणी अहोरत्त प्रमाण, नणण न सूळे सूत्रतणो | तेहना ए गण ॥ वात सहित वा वात रहित रजने उद्घाति, रज पमती जिह शब्द थाय तेहने थापाति ॥ २५॥ धूलि शला ने केश वृष्टि जातां असजाइ, चैत्रमासि उजले पख ऋमि पंचमि | आश्॥ योगतणो निक्षेप करे तिणि दिवस प्रनाति, जो न करे तो बीज हुवे ए आगम ख्याति ॥२६॥
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