SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अस्वा० सितरी ~11 &211 उत्तराध्ययनबेदने अंग, बारमांहि केईय उवंग ॥ ७ ॥ इम कालिक घ्यावश्यक आदि, एना तप उपधानादि ॥ विधि विण जपतां बहुला दोष, थाय सही आसायण पोष ॥ ८ ॥ श्रसायण वारण मिछत्त, टाळंतां निर्मल समत्ति ॥ इसो जाणि विधिशुं सद्दहो, श्रुत नथिवो जिम शिवसुख लहो ॥ ए ॥ सूत्र अर्थ अधिकारी साध, गृही अर्थ अधिकारी लाभ ॥ अंगजवंग सूत्रनी शाखि, एह मर्म निश्चल मन राखि ॥ १० ॥ पासी वेरत्ति जाण, पानाई इम त्रिषि वखाण ॥ उत्तराध्ययने बीसमें, त्रिहुं काले मुझ मन वीसमे ॥ ११ ॥ कालग्रहण यति विष नवि होय, एह विचार विमासी जोय ॥ तिपि विष गृही कहो किम जणे, गुणे ते साधु मुखि सु ॥ १२ ॥ साधु गृहीने नहु वाणा, दिये निसित्थे पमिसेदणा ॥ ठाणांगि वायण वारणा, संजालु ए गुरु सारणा ।। १३ ।। पूर्व कालि पुस्तक नहु हुता, गृही कहो ति किम वांचता ॥ आशातन टालो एम जाणि, जयो जयो जिनवरनी वाणि ॥ १४ ॥ विधिये नएयुं पुण जिम न जलाए, नदु वंचाए नहु गुणाए ॥ ते कारण असकाइ तयुं, गुरुमुखि संचालि ते दिव जणुं ॥ १५ ॥ अ० सि० ॥ ६१ ॥
SR No.600329
Book TitleSurdipikadi Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvacharyadi, Mangaldas Lalubhai
PublisherMangaldas Lalubhai
Publication Year1913
Total Pages412
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy