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दीपिका
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॥४६
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पर तरो ॥३॥ देह संबंध तिय गारवा परिहरी, नाविय नावना अशुचिनी मनधरी ॥ बार जे || सु० दी० श्रोत्र ते बार तनु मल अवे, देह नारीतणो शौच ते केम हुवे ॥२४॥ मंस पेसी जीसी जुवई जो| खम घणी, संखगुण नरथकी नारी आगम नणी ॥ पापनी राश बहु वास आवी मले, स्त्रीतको | वेद सुद दतो संपळे ॥२५॥ कर्मबले महबले सबल माया करी, तित्थकर रूप नृपकुनघर || अवतरी॥ पुत्रिका मलि ए गरुष अछेर, जश् पण स्त्रीपणो एह नढेर ॥ २६ ॥ पूर्वला मित्र बह परणवा बाविया, अशुचि तनु दाखवी परमपद गविया ॥ हरि प्रत्ये दीकरी दासी थाशं कहे, वसिहि कोलीतणे पमिय परिनव लहे ॥२॥ इणिपरे नारि अवधार परवस सदा, | विरह वली वरतणे प्रगट परमापदा ॥ जाण एम टाल ऋतुकाल श्रासातना, श्रुततणी तुम नणी न हुए नवयातना ॥२॥ उहा ॥ असा सजाय जे, नणे गुणंत सुणंत ॥ ते नारी बहु नव जमे, श्री पार्श्वचं पत्नयंत ॥रणा ढालदिऊढीनी॥ जाणीय पुष्प प्रवाह, अवसर अवसर, संनारे त्रिजुवन धणी ए॥ इंश्ये धरे बहु दाह, धिगु धिगु नारीय, नारिय कमें जिन नणी ए॥
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