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द्वात्रिंश प्रमादस्थानाख्यमध्ययनम्।
श्रीउत्तराध्ययनसूत्रे श्रीनेमिच
न्द्रीया सुखबोधाख्या लघुवृत्तिः । ॥३५७॥
प्रमादस्य स्थानानि।
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गंधस्स जो गिद्धिमुवेइ तिवं, अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे ओसहिगंधगिद्धे, सप्पे बिलाओ विव निक्खमंतो॥५०॥ जे आवि दोसं समुवेइ तिवं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुइंतदोसेण सएण जंतू, न किंचि गंधो अवरज्झई से ॥५१॥ एगतरत्तो रुइरंसि गंधे, अतालिसे से कुणई पओसं। . दुक्खस्स संपीलमुवेइ वाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो॥५२॥ गंधाणुयासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइगरूवे। चित्तेहिं ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तह गुरू किलिष्टे ॥५३॥ गंधाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निजोगे। बए विओगे य कहं सुहं से, संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥५४॥ गंधे अतित्ते य परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो न उवे तुहिं। अतुढिदोसेण दुही परस्स, कोभाविले आययई अदत्तं ॥५५॥ तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, गंधे अतित्तस्स परिग्गहे य। मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुचई से॥५६॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरंते। एवं अदत्ताणि समाययंतो, गंधे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो॥५७॥
महाभिभूयस्स अटोसा, तत्थाऽवि
॥३५७॥
यदुही दुरंते
॥७॥