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________________ श्रीउत्तराध्ययनसूत्रे श्रीनेमिचन्द्रीया सुखबोधाख्या लघुवृचिः । एकत्रिंशं चरणविधिनामकमध्ययनम् । चरणविधानम्। ॥३४३॥ EXXXXXXXXXXXXX उवासगाणं पडिमासु, भिक्खूणं पडिमासु य। जेभिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥११॥ किरियासु भूयगामेसु, परमाहम्मिएसु य । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥१२॥ गाहासोलसएहि, तहा असंजमम्मि य । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥१३॥ बंभम्मि नायज्झयणेसु, ठाणेसु यऽसमाहिए। जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥१४॥ इक्कवीसाए सबलेसुं, बावीसाए परीसहे । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥१५॥ तेवीसई सूयगडे, रूवाहिएम सुरेसु य । जे भिक्खू जयई निचं, से न अच्छइ मंडले ॥१६॥ पणवीसा भावणाहिं च, उद्देसेसु दसाइणं । जे भिक्खू जयई निचं, से न अच्छइ मंडले ॥१७॥ अणगारगुणेहिं च, पगप्पम्मि तहेव य । जे भिक्खू जयई निचं, से न अच्छइ मंडले॥१८॥ पावसुयप्पसंगेसु, मोहहाणेसु चेव य । जे भिक्खू जयई नि पच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥१९॥ | सिद्धाइगुणजोगेसु, तित्तीसाऽऽसायणासु य । जे भिक्खू जयई निचं, से न अच्छइ मंडले ॥२०॥ व्याख्या-'एकत:' एकस्माद् विरतिं कुर्यात् , 'एकतश्च' एकस्मिंश्च प्रवर्तनम् । एतदेव विशेषत आह–असंयमात् पञ्चम्यर्थे सप्तमी निवृत्तिं च संयमे च प्रवर्त्तनं कुर्यादित्यनुवर्त्तते। 'चकारौं' समुच्चये ॥ रागद्वेषौ च द्वौ पापौ पापकर्मप्रवर्तको यो भिक्षु 'रुणद्धि' तिरस्कुरुते नित्यं सः 'नाऽऽस्ते' न तिष्ठति 'मण्डले' संसारे वृद्धव्याख्यानात् । एवमुत्तरसूत्रेष्वपि नित्यमित्यादि व्याख्येयम् ॥ 'दण्डानां' मनोदण्डादीनां 'गौरवाणां च' ऋद्धिगौरवादीनां 'शल्यानां' मायाशल्यादीनां त्रिकं त्रिकं यो भिक्षुस्त्यजति ॥ दिव्यांश्चोपसर्गान् , तथा तैरश्चमानुषान् उपलक्षणत्वादात्मसंवेदनीयांश्च प्रत्येक SEX8XOXOXOXOXOXOXOXOXOX) ॥३४३॥
SR No.600327
Book TitleSukhbodhakhya Vruttiyutani Yttaradhyayanani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmangsuri, Nemichandrasuri
PublisherPushpchandra Kshemchandra
Publication Year1937
Total Pages798
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_uttaradhyayan
File Size21 MB
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