________________ गौतमगणधरः // 493 // विशेषाव. पूर्वकत्वाद्, आत्मानमन्तरेण च तदभावात् , न च स्कन्धा एव प्रयत्नवन्तः, तेषां प्रतिक्षणभङ्गुरत्वादनुसन्धानामावाद्, वासनाया अपि कोव्याचार्य योर्वास्यवासकयोर्दर्शनात् , तिलमालतीपुष्पयोरिवेति // 2058 // अत आह एवमुवओगलिंगं गोयम ! सव्वप्पमाणसंसिद्धं / संसारीयरथावरतसाइभेयं मुणे जीवं // 2059 // // 493 // जह पुण सो एगो चिय हवेज वोमं व सव्वपिंडेसु / गोयम ! तदेगलिंगं पिंडेसु तहान जीवोऽयं // 2060 // नाणाजीवा कुंभादयो व्व भुवि लक्खणाइभेयाओ। सुहदुक्खबंधमोक्खाभावो य जओ तदेगत्ते // 2061 // जेणोवओगलिंगो जीवो भिन्नो य सो पइसरीरं / उवओगो उक्करिसावगरिसओ तेण तेऽणंता // 2062 // एगत्ते सव्वगयत्तओन मोक्खादओ नभस्सेव / कत्ता भोत्ता मंता न य संसारी जहाऽऽगासं॥२०६॥ एगत्ते नत्थि सुही बहूवघाउत्ति देसनिरुउव्व / बहुतरबद्धत्तणओ न य मुक्को देसमुक्को व्व // 2064 // जीवो तणुमेत्तत्थो जह कुंभो तग्गुणोवलंभाओ। अहवाऽणुवलंभाओ भिन्नम्मि घडे पडस्सेव // 2065 // तम्हा कत्ता भोत्ता बंधो मोक्खो सुहं च दुक्खं च / संसरणं च बहुत्तासम्वगयत्तेसु जुत्ताई // 2066 // 'एव'मित्यादि सुखोन्नेयेति // आह-'यदी'त्यादि / यदि पुनः संसार्यसंसारित्रसस्थावरादिभेदभिन्नो जीवसङ्घातः सर्वपिलण्डेषु-सर्वमृत्तिमत्स्वेक एव स्याद् व्योमवत् क इव दोषः स्यात् , न चैतत्स्वाभिप्रायमात्रेण पृच्छयते, यत उक्तम्-"एक एव हि * भूतात्मा, भूते भूते प्रतिष्ठितः / एकथा बहुधा चैत्र, दृश्यते जलचन्द्रवत् // 1 // यथा विशुद्धमाकाशं, तिमिरोपप्लुतो जनः / सङ्कीर्णमिव मात्रामिभिन्नाभिरभिमन्यते // 2 // तथेदममलं ब्रह्मा, निर्विकल्पमविद्यया। कलुषत्वमिवापन्नं, भेदरूपं प्रकाशते // 3 // ऊर्ध्वमूलमपाशाख * S