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________________ श्रीमज्ञा० श्रीहारि ० १० चरम ० * प्रदेशवहुत्वमपि तेण अचरिमंतपदेसा लोयस्स असंखिञ्जगुणा, अलोगस्स पुण अचरिमंतपदेसा अनंतगुणा, लोगस्स अचरिमं- चरमादि* तपदेसे हितो कथमनन्तगुणता १, क्षेत्रस्यानन्तगुणत्वादेव, लोगस्स अलोगस्स य चरिमंतपदेसा य अचरिमंतपदेसा य दोवि * स्वरूपं विसेसाहिया, तथैव पूर्वन्यायेन विंशतिर्द्वात्रिंशद्वा संक्षेपतः द्रष्टव्यं दव्वपदेसट्टयाए सब्वत्थोवा लोगालोगस्स दव्यट्टयाए * एगमेगे अचरिमे, यस्मात्तदेकमेव द्रव्यं स्कन्धपरिणतं, लोगस्स चरिमाई विसेसाहियाई, जम्हा अलोगचरिमंता लोगचरि- * मंतरसु पविट्ठा गणिजमाणा समतिरित्ता एव दृश्यन्ते पृथिवीन्यासे, लोगस्स य अलोगस्स य अचरिमाई चरिमाणि य दोवि * विसेसाहियाई, कथं १, अलोगचरिमाचरिमरासी बचीसा बुद्धीए ठाविऊण लोगचरिमरासी बीसं एतो लोगचरमरासिंमि * अलोगचरिमरासिं अचरिमाणि य दुवेण्हंपि एगत्थ संखिवेजा, जाता बावण्णा, तेण समुदिता विसेसाहिया, विसेसाहिया ण संखे* अगुणा, जेण दुगुणावि न भवंति, लोगस्स चरिमंतपदेसा असंखिञ्जगुणा, यस्माद्रव्यं प्रदेशगणनया गण्यमानमसंख्येयमेव, अलोग- * चरिमंतपदेसा विसेसाहिया, जम्हा चरिमंताणि चैव समतिरित्चाणि तेण पदेसा विसेसाहिया, लोगस्स अचरिमंतपदेसा असंखि- * खगुणा अलोकचरिमान्तप्रदेसेभ्यः यस्मात् क्षेत्रं एकमेव तद् बहु, अलोगस्स अचरिमंतपदेसा अनंतगुणा, कथं १, यस्मादनन्तगुणमेव तत् क्षेत्रं, लोकस्य अलोकस्य च चरिमंतपदेसा य अचरिमंतपदेसा य विसेसाहिया, पूर्वाभिहितेनोपायेन वक्तव्यं, सव्व| दव्वाणि विसेसाहियाणि । परमाणुपोग्गले णं भंते! किं चरिमे अचरिमे अव्वत्तर पुच्छार छब्बीसं भंगा, ते य इमेण विहिणा ठा* विजंति-चरिमे अचरिमे अव्वत्तव्वर चरिमाई अचरिमाई अव्यत्तव्वयाई, एते पत्तेयभंगा, ततो चरिमे अचरिमे चउभंगी, ततो चरिमे * * य अवत्तब्वए य चउभंगी, ततो अचरिमे य अवतन्त्रए य चउभंगी, ततो चरिमे य अचरिमेय अवतन्त्रए य अड्ड भंगा, एवं ॥६७॥
SR No.600294
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Shyamacharya
PublisherJinshasan Aradhak Trust
Publication Year2012
Total Pages106
LanguagePrakrit
ClassificationManuscript & agam_pragyapana
File Size8 MB
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