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, शरीरस्यायुक्ततां विग्रह - शब्दच्छलेन परिहरन्नाह । पक्षपातरहितानां हि मध्यविवर्तिनां युद्ध ॥२४॥ ક૯યાણ
। भावार्थ --विरोधाभास द्वारा प्रभु का माहात्य - हे जिनेश्वर । मन्य प्राणी अपने जिस शरीर में मापका મદિર મહાય
निरन्तर ध्यान करते हैं उनके उसी शरीर को भाप क्यों नष्ट करते है ! अर्थात् उन्हें मोक्ष प्राप्त करवाकर देह रहित करते हैं जिस पूजन- स्थान में भव्य मापका चिन्तन करते हैं उसी स्थान का नाश करना आपके लिये उपयुक्त नहीं है। यहां विरोधाभास अलंकार हुमा । विधि इसमें 'विग्रह' शब्द के 'शरीर' और 'कलह' दो अर्थ होने से आचार्य महाराज उस विरोध का परिहार करते हैं। मथवा तो वह
योग्य ही है क्यों कि जो मध्य में बीच में-मध्यस्थ होते है उनका स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे महात्मा विग्रह शरीर और जीव का पारस्परिक अनादिकाल का विग्रह का दो के बीच कलह का नाश करते ही है उसी प्रकार यहां भाप विग्रह का अर्थात जीवको मोक्ष देने से शरीर का नाश करते हैं क्यों कि भाप मी शोर के मध्य - मध्यस्थ रहे हुए हैं । (१६)
-- ॐ ही नमो अरिहंताणं पादौ रक्ष रक्ष। ॐ ही नमो सिद्धाणं कटिं रक्ष रक्ष ॥ - ॐ ही नमो आयरियाणं नाभिं रक्ष रक्ष । ॐ ही नमो उवज्झायाणं हृदयं रक्ष रक्ष ॥ . ॐ ही नमो लोए सब्बसाहूणं ब्रह्माण्डं रक्ष रक्ष । ॐ ही एसो पंचनमुक्कारो शिखां रक्ष रक्ष ॥ * ॐ ही सव्वपावप्पणासणो आसनं रक्ष रक्ष । ॐ ही मंगलाणं च सव्वेसि पढमं हवइ मंगलं-* * आत्मरक्षा पररक्षा हिलि हिलि मातंगिनि स्वाहा । १४७ ४३॥ ॐ ही विग्रहनिवारकाय श्री* * जिनाय नमः। 1 MAN ॥ * - ॐ ही अह णमो णगभय पणासए १४ HAN | मत्र
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