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श्रीदे० चै
त्यशोधर्म
नैवेवियां भुवनमल्ल
संघाचार
विधौ ॥३९॥
| मुणिवइवयणाउ जायवेरग्गो। पडिवाइ पवज रजं दाउं कुमारस्स ॥४१॥ कुमरो पुण संमत्तं गिण्हइ चिइवेदणाइनियमजुयं । अह गुरुणा गुरुकरुणापरेण एवं स अणुसिहो ॥४२॥ "लन्भंति सुरसुहाई लन्भंति नरिंद! पवररिद्धीओ । न उणो सुबोहिरयणं । लन्मइ मिच्छत्ततमहरणं ॥४३॥ जह गहगणाण गयणं आहारो रोहणो य रयणाणं । सिंधूण जहा जलही तह सयलगुणाण संमत्तं ॥४४॥ जह उत्समो मुणीणं चाओ विहवीण सीलमित्थीणं । तह संमत्तं गिहिणो जइणोवि विभूसणं परमं ॥४५॥ ता मा कासि | पमायं सम्म सबकखनासणए । जं सम्मत्तपइट्ठाई नाणतवविरियचरणाई ॥४६॥" इच्छंति भणिय कुमरो तो मानतो कयत्वमप्पाणं । बहुबहुमाणं नमिउं गुरुपयपउमं गओ सिविरं ॥४७॥ सिद्धत्थपुरे गंतुं सुमइअमच्चं तहिं ठविय रजे । चलिओ पुरओ| पत्तो अडवि कालिंजरं जा उ ॥४८॥ खग्गमिधायमजंतमत्तमायंगवियडकुंभयडा। विलसिरसकुंतसरचक्कवायवासंगरूद्धरहा ॥४९॥ तत्थ दसजोअणते आवासिय जाव वरुणनइतीरे। कुमरो नियइ वणाई ता पिच्छइ रिसहजिणभवणं ॥५०॥ तो तत्थ निसीहितिगं काउंजा पविसई नियइ ताव । जिणपूयवावडाओ अमरीओ भत्तिनमिरीओ ॥५१॥ अह दट्टुं निप्पडिम कणगमयं रिसहसामिणो पडिमं । कुमरो वियसियवयणो बंदइ विहिणा धुणइ एवं ॥५२॥ "विश्वत्रयैकदर्शन ! सहस्रदर्शननतक्रम | जिनेंद्र।। सवणंतपत्तदंसण ! अणंतदंसण चिरंजयसु ।। ५३ ।। पूर्वाकृतसुकतानां पूर्वाशीलितविशुद्धशीलानाम् । अविहियतवाण
पुदिन होइ तुह दंसणं चेव ॥५४॥ भवशतकृतमपि पापं त्वदर्शनतो विलीयते नाथ! | पिंडीभूअंपिव धयं दुअं जहा जलिरजलणाओ ॥५५|| समयोऽयमेव शस्यः सलक्षणोऽसौ क्षणस्तदहरनघम् । पक्खोऽवि सो सपक्खो जयबंधव! दीससे जत्थ ॥५६॥ द्रष्टुमदृष्टे वांछा दृष्टे त्वयि नाथ ! विरहजं दुःखं । इय जइ दुहावि न सुहं तहावि तुह दंसणं होउ ॥ ५७ ।। पूर्वाजितसुकृतकृतं
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