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श्रीदे
| गुणसागर
कथा
चैत्य श्रीधर्म संघा
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चारविधौ
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RINITIANIMAL
॥३५६॥
चाओ गुणेसु अणुराओ। करुणाएँ अप्पमाओ सो धम्मो सिवसुहोवाओं ॥ ३४॥ जइधम्मो तत्थ समग्गसंगविगमे गयंगिवग्गवहो । विहियअसायकसायचाओ सिवगमणपवणगुणो॥३५॥ तदसत्ताणं सत्ताणऽगारधम्मोऽवि होइ गुणहेऊ। लहुभोयणं व लंघणकरणासत्तस्स रोगिस्स ॥ ३६ ॥ इय जाणिय जे सम्मं धम्म धारेति ते सया धन्ना। जे निरइयारमेयं पालंती ताण किं भणिमो? ॥३७॥ जओ-धनाणं विहिजोगो विहिपक्खाहारगा सया धना। अन्यच-विहिबहुमाणी धन्ना विहिपक्खअसगाधना ॥३८॥ भणियं च-आसन्नसिद्धियाणं विहिबहुमायो उ होई सयकालं। विहिचाओ अविहिमची अभबजियदरभन्वाणं ॥३९॥" इय सोउ निवो रज्जे पु ठविउ विमोइउंगुतिं । भवगुचिमोइणि गिहिऊण दिक्खं गो मुक्खं ॥४०॥ गुणमायरनिवई पुण मित्तजुओ सायरो गुणग्गहणे । गिहिय गिहत्यधम्म नमिऊण गुरुं गओ सगिरं ॥४१॥ निसि नियइ कयाइ निधो रमणिं तणुकंतिहयतम इकं । वसुदंडडमरुयकरं सियवत्थं पाउयारूढं ॥४२॥ इय कासि कओ केण व आगया इत्थ ईसि हसिरा सा । कहइ तुह पुब्वभर| साहियम्हि पञ्चंगिरा विजा ॥४३॥ जा सिज्झिस्सं विहिविहियपुन्वसेवस्स तुज्झ ता सहसा। निहणं गओसि संपइ धणियं जिणधम्मनिरयस्स ॥४४॥ चिहवंदणापरस्स य उचियपवित्तस्स तुह अहं नूणं । पत्ता किंकरभावं कजविसेसेसु सरियन्वा ॥३६॥ राजा अगणुट्टाणाविणओ अनाणभवो महेह खमियबो। देवी-को अविरयाइ मइ इह गुणाहियाण अविणओ मे।। ३७॥ नियकंठा निवकंठे| खिचा मुत्तावलि भणिय तहिम । एयाउ अरीवि वसं तित्ति तिरोहिया सहसा ॥३८॥ तो मिचीकयअबंतपक्षणीयाहिवो निवो निच्छ । ठविउं धरणामच्चे रजधुरं कुणइ जिणधम्म ॥ ३९ ॥ धरणो सहसाऽभक्खाणरहम्मन्मक्खाणमाइ दाउ इओ। गिण्हइ लोगाउ बहुं दहमनीईई अह कइया ॥४०॥ पउरेहिं विनत्ते स निवेणुत्तोत्ति किं इमं सच्च । भणइ मरंता भंडारमिह तुहाम्हि चिय न |
॥३५६॥