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श्रीदे० चैत्य० श्री - धर्म० संघाचारविधौ
॥२००॥
दा कह कणयपुरिसं देमि इय जंपिए गया दोऽवि । गामस्सेगस्स वहिं नग्गोहयले निसन्ना य ||४५ || भचस्स कए कयकइयवेण अह तेण जोगिणा सीहो । दीणारदुगं अपितु पेसिओ गाममज्झमि ||४६ ॥ वीससिएण तं तेण तुंबयं मुक्कमेयपासंमि । सो उण वस्सव जीयं गिण्डिय तं कत्थइ पलाणो ॥ ४७ ॥ अह गहियभूरिभतो पत्तो कुलपुत्तओ तर्हि जोगिं । अनिएवि मणे खुद्धो हा मुहासोऽहं ॥ ४८ ॥ अतणुमणिरयणपुलं पत्ररनिहिं दंसिउं न दंसेइ । खणमिचेणेव जणाण इंदयालं अहो विहिणो ॥ ४९ ॥ एमाइ बहुं वरिय दरचुचो चेव तस्स जोगिस्स । सुद्धिकए परिभमिरो जा जाइ गिरिम्मि एगम्मि ||५०॥ देवेहिं महिअंतं तक्कालुष्प| नकेवलंनाणं । पिच्छिवि पहाससाहुं नमिय निसन्नो सुणइ धम्मं ॥ ५१ ॥ यथा - "इह तुल्लेवि नरते एगे पहुणो पयाइणो अच्छे || धम्माधम्मफलं ता नाउं भविया ! कुंणह धम्मं ॥५२॥ जह इहलोइयजे सव्वत्थामेण उज्जमइ लोओ । तह जह लक्खंसेणवि परलोए ता सुही होइ ॥ ५३॥ घम्मेण विना जइ चिंतियाई लब्भंति इत्थ सुक्खाई। ता तिहुयणेऽवि सयले न कोऽवि इह दुक्खिओ - हुजा || ५४ || इय सोउ भणइ सीहो सचमिणं ते मुनिंद ! निद्दिवं । किंतु पसिऊण मज्झं उचियं धम्मं समाइससु ॥५५॥ जंपर सुणीवि भो सीह ! सीहसरिसं कुकम्मगयदलणें । निश्धं जिणिंदचंदं नमि पंचंगनुमणेण ॥ ५६ ॥ अमाण १२ कोह २ मय ३ माण४ लोह५माया६ रई७य अरई८य । निदा९ सोय १० अलियवयण ११ चोरिया १२ मच्छर १३ भया १४ ||२७|| पाणिवह १५ पिम्म १६ कीलापसंग १७-२ हासचि १८ अट्ठदस दोसा । जस्स गया तं देवं नमित्र पंचगनमणेण ॥ ५८॥ जो बंदिअइ सययं देविंदनरिंवंदर्विदेहि । तं मद्द ! तुमं देवं नमिअ पंचगनमणेण ॥५९॥ | " अह सीहो मुणिपासे नियममिमं गिण्दए मए अरिहा | पंचगनमणपुर्व जा ण नओ ता न भुत्तवं ॥ ६० ॥ वयणु अणुचरनाणो मुणी विहारं अकासि अन्नत्थ । इयरोऽवि पहिदुमणो तत्तो सेलाउ ओयरिओ ॥ ६१ ॥ जिणनमणमंतरेण
प्रणामे
सुरेन्द्रदच
कथा
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