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________________ श्रीदे चैत्य० श्रीधर्म० संघाचारविधौ ॥ १९५ ॥ विहिकहणं वा अच्छउ चिइवंदणार दूरेण । पाढोवि तीइ देइ उ अद्दिगारिणो अपुणबंधाई || १७|| दिना उ अणहिगारिणि अविहिअवनासेवणा जस्स | दुपउचओसईपिव होइ अकछाणजणगचि ॥ १८ ॥ तम्हा उ अपुणबंधगअविरय विरएहि होड़ कायद्या । विहिउचियविचिबहुमाणमत्तिकलिएहिं सयकालं ॥ १९ ॥ साहूहिं गिद्दत्थेहि अ अणन्नचिट्ठेहिं जनकलिएहिं । जहसंभवं गिहीहिं कयजिणपूयोवयारेहिं ||२०|| तह दवभावमेया दुद्दा इमा दबओ पुणो दुविधा । अपहाणा य पहाणा हेऊभावस्सिद्द पहाणा ||२१|| तत्थ पद्दाणा एसा होउ पुणो अपुणबंधगाईणं । अपहाणचिअ सेसाण इत्थ सहबंधगाईणं ||२२|| ताण सबंधगाणं मग्गाभिहाण मग्गवडिया | इयराणवि अपहाणा चिह्नवंदण दव्बओ होइ ॥ २४ ॥ उवओग अत्थचितणगुणराया लाहविम्हओ येव । लिंगाणि विहिअभंगो भावे दथ्वे विवञ्जइओ || २४|| वेलाविहाणतग्गयमणतणुवयणाणि तह य लिंगाणि । रोमंचभाववुडीइ भावचिइवंदगाइ भवे ||२५|| सुत्ते एगविहचिअ भणिआ तो णेगसा हणमजुचं । इय थूलमई कोई भन्नइ सुत्तं इमं सरिडं ||२६|| तिन्निवा कड़ई जाव, थुइओ तिसिलोइया । ताव तत्थ अणुनायें, कारणेण परेणवि ॥ २७ ॥ भणइ गुरू तं सुतं चिइवंदणविहिपरूवर्ग न भवे । निक्कारणजिणमंदिरपरिभोगनिवारण || २८ ॥ जं वासहो पयडो पक्तरसूयगो तहिं अत्थि । संपुन्नं वा बंदर कड्डुइ | वा तिनि उ धुईओ ||२९|| एसोऽवि हु भावत्थो संभाविजइ इमस्स सुतस्त । तो अनत्थं सुतं अन्नत्थ न जोइउं जुतं ॥ ३०॥ किंच - जइ इचियमितं चित्र जिणवंदणमणुमयं सुए हुतं । थुथुताइपविची निरत्थिया हुआ सबावि ॥ ३१ ॥ अन्नं च - गीयत्था विहिरसिया संविग्गतमा य सूरिणो पुरिसा । कह ते सुतविरुद्धं सामायारिं परूविंति ॥ ३२ ॥ अहवा चिदणया निचा इय| रित्ति होइ दुविधा उ । निच्चा उ उभयसंज्ञं इयरा चेइयगिहाईसु ||३३|| निचा संपुन्नचिय इयरा जहसचिओ उ कायवा । तदि बन्दना मेदाः ।।१९५ ।।
SR No.600278
Book TitleChaityavandanbhashyam
Original Sutra AuthorDevendrasuri, Dharmkirtisuri
Author
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year1988
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size12 MB
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