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________________ ॥५३॥ XXXXXXXXXXXXXXXXX रवई पयावपरिभूयवेरिनरनाहो । सो रजं रंजियसुयणमाणसो माणइ जहिच्छं ।।८६।। जाओ जणे पवाओ जह इमिणा चंदमंडलं सुमिणे । पीयं तस्स पसाएण पावियं एरिसं रजं ।।८७।। सुणियं च तेण देसियन रेण कि एरिसं न मे जायं । नरनाहत्तं वीणणदोसाओ जणेण सो भणिओ ।।८८।। एत्तो जमन्नमेवं सुमिणं लब्भामि तं कहिस्सामि । निउणस्स कस्सई जेण हाज इय रजसंसिद्धी ।।८९।। दहितकपउरभायणपरायणो सोविरो जहिच्छाए। सुविणं मग्गंता सो किलिस्सिओ कालमइबहुयं ॥९०॥ जह तस्स एयसुविणयलोभी अइदुल्लहा तहा भट्ट । मणुयत्तं मणुयाणं अपारसंसारनीरहरे ।।९१।। एसो सेसकहाणयलेसो पत्थावमागओ जेण । तेण भणिजइ सो अन्नया उ चितेइ नरनाहा ॥९२।। लद्ध रज्जं मयमंडणाण वरवारणाण य सहस्सो। एगित्थ देवदत्ता ण अत्थि तो गुणमाभाइ ॥९३।। यतः"नेहलिनिग्ग मेलइ निक्कारण रसी, वसणसएवि अमूढइ विहवि अणुल्लसी। सज्जणि सरलसहावइ 'तहवि सोमथिरि, माणुससंगमि सग्गु कि सग्गह सिंगु सिरि? ||१॥" उज्जेणिसामिणा दाणमाणगहिएण विहियपणएण । अब्भथिएण बहुहा समप्पिया देवदत्ता से ।।९४॥ विसुयं सद्धडभट्टण मूलदेवा समजिणियरज्जो। बिण्णायडम्मि नयरे समागओ तत्थ लहु चेव ॥९५।। दिट्ठो राया, दिण्णो पहाणगामो विसजिओ तत्तो। मह नयणगोयरे जह न एहि तह कुणसु इय भणिओ ॥९६।। अह अन्नया कयाइ उज्जेणीओ धणजणनिमित्तं । देशतरं पवण्णो अयलो बहुलोयपरियरिओ ।।९७।। तत्थावज्जियबहुविवभरियसगडो य दिव्वजोएण । बिन्नायडम्मि पत्तो सुकं पाडेउमारद्धो ॥९८॥ १ घ 'सूहवि' । kxxxx*************** XXXXXXX
SR No.600268
Book TitleUpdeshpad Mahagranth Satik Part 01
Original Sutra AuthorJinendrasuri
Author
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year1989
Total Pages438
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size8 MB
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