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________________ EXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX ||१५९।। महातिमिरं ॥११६।। ता सा किंचि विलक्खा जा जाइ उवस्सयम्मि ता विहिया। आवस्सयकिरिया साहणीहि भणिया य गुरुणीए ॥११७।। अकलंककुलपसूया जगसिरमणिणा जिणेण दिण्णवया । एयारिसं तमजे ! रयणिविहारं कह पवन्ना? ॥११८।। तो सा पायनिवडिया पवत्तिणीए खमाविउ लग्गा। एसो ममावराहो मरिसिजउ न पुण काहामि ।।११९।। एसा महाणुभावा पवत्तिणी सयललोयनमणिज्जा । कह मज्झ, पमाएणं एवमसंतोसमाणीया ॥१२०॥ एवं संवेगपरा नियदुच्चरियं पुणो पुणो जाव, । गरिहेइ. ताव जायं केवलनाणं जयपहाणं ॥१२१।। निद्दावसाए बाहू अजाए चंदणाइ सेजाओ । पडिओ बहिं अही पुण तद्दिसिमागंतुमारद्धो ।।१२२।। ठविओ सेजाइ मिगावईई सो जाव ताव पडिबुद्धा। किं मे बाहू चलिओ भणेइ भयवइ ! इहं नागा ॥१२३॥ संचरिओ किह नायं नाणाइसएण सो य पडिवाई। किं होजा इयरो वा । सा भगवइ ! भणइ अन्नोत्ति ॥१२४।। सम्म मिच्छादुक्कडपरायणाऽऽसायणा मए विहिया। उप्पन्नकेवलाए इमीइ निद्दापमायाओ ॥१२५।। इय वेरग्गमुदग्गं खणमेक्कमुवागया तओ तीए। लायालायविलाओ ण-णाइसओ समुप्पण्णो ॥१२६॥ निग्घाइयकम्ममला कालेण सिवं अणंतममलं च । सिद्धिगइनामधेयं परमं ठाणं गया दोवि ॥१२७।। पायं पसंगसारं भणियमिमं पत्थुयं च पुण एत्थं । वेणइयबुद्धिसारेण सोमडेणं न अन्नेणं ॥१२८॥ इति अथ गाथाक्षरार्थः;-अत्रैव वैनयिक्यां बुद्धौ अर्थशास्त्रेऽर्थोपार्जनोपायप्रतिपादके सामोपप्रदानभेददण्डलक्षणे नीतिसूचके बृहस्पतिप्रणीते शास्त्रे पूर्वमेव द्वारतयोपन्यस्ते, 'कप्पगत्ति' कल्पको मन्त्री ज्ञातमिति गम्यते केनेत्याह ।।१५९।। RASAN
SR No.600268
Book TitleUpdeshpad Mahagranth Satik Part 01
Original Sutra AuthorJinendrasuri
Author
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year1989
Total Pages438
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size8 MB
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