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________________ श्रीजैन कथासंग्रहः श्री अथ 23 सुसढचरित्रम् । ॥१४॥ सुहडवग्गा । हणहणहणत्ति भणिरा कयंतमुत्तिव्व विकराला ॥ ६६ ॥ इत्थंतरंमि गोअम ! पवयणदेवीइ थंभिआ सव्वे । जाया लिप्पमया इव, निचिट्ठा तत्थ ते जोहा ॥६७ ॥ पच्चक्खीहोऊणं, गयणयलठियाइ तीइ देवीए । हरिसभरनिन्भराए पयंपियं एरिसं वयणं ॥ ६८ ॥ जो चालइ कुलसेलं, उदहिं सोसेइ जिणइ चक्कहरं। सीलधराण नराणं, रुडो विनसो पहुप्पिजा॥६९॥ सुच्चिय निम्मलनियकुल-नहयलसारयससिव्व सुप्पुरिसो। सुच्चिय तिलोअपुजो जो निम्मलसीलगुणकलिओ ॥ ७० ॥ परमपवित्तं सुप्पुरिसा-सेवियं सयलपावनिम्महणं । सव्वुत्तमसुक्खनिहिं, सीलं चिय जयइ जिअलोए॥१॥ तो भो तामसभावं, मुत्तुं सेवेह सीलसन्नाहं । इय भणिउं देवीए, मुक्का तदुवरि कुसुमवुट्ठी॥७२॥ अह मुच्छिओ कुमारो, खणंतरे लद्धचेअणो संतो । उप्पन्नजाइसरणो, ओहीनाणं समणुपत्तो॥ ७३ ॥ इत्थंतरम्मि रना चारनरा पेसिआ निरिक्खत्थं । मणिमुत्तियपुनाए नयरीए तह य कुमरस्स ॥ ७४ ॥ ते जच्चतुरंगेसुं, चढि गिरिकंदराओ निग्गंतुं । जा पत्ता तत्थ लहुं, तो दिट्ठो तेहिं सो कुमरों ॥ ७५ ॥ दाहिणकरेण लोयं, कुणमाणो देवयाइ तप्पुरओ। दिट्ठा जयसद्दपरा धम्मोवगरणपडलहत्था ॥ ७६ ॥ विम्हियमणा लहुं चिय, ते गंतुं निअपहुस्स अकहिंसु । सोवि लहुं संपत्तो, सपरियणो तत्थ जाव निवो॥७७॥ ता दिट्ठो कुमरमुणी, सोहम्माहिवइणा धरियछत्तो। धम्म सुरमणुआणं, अक्खंतो कणयकमलत्थो॥७८॥ ओहीनाणेण तहा, असंखजम्माणुभूअनिअचरि। सुहदुक्खं ॥१४॥
SR No.600265
Book TitleJain Katha Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorKalyanbodhivijay
Author
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year1998
Total Pages272
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size16 MB
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