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________________ * अनुवादक- ब्रह्मचारीमान श्री अमोलक ऋषिजी एवं माहंसु-जयाणं मृरिए सवभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तयाणं अवद जंदिवं २ उग्गाहिता चारं चांति, तथाणं उत्तम कट्रपत्ते उक्कोसेणं अटुर: मत। दिन भवति जहा गणवा दालन महत्ता राती भवति ॥ एवं सब्ध बाहिरएवि. पवर अबदलवा समुई, तया रायंदियं रहव ॥ तत्थ जेते एवं माहंमु ता नो किंचिदिवंवा समुहंवा उग्गाहित्ता सुरिए चार चरंति, ते एवं माहंमु जयाणं सरिए सध्यभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, तयाणं नो किंचि. दिवंवा, समईवा उग्गापिता चारं चरति, तयाणं उत्तम कट्रपत्ते उक्कोसए अटारस मुहत्ते दि से भवति, तहेव एवं सब्वे बाहिर मंडलं णवर नो किंचिलवणसमुदं लवण समुद्रका क्षेत्र अगाहकर चाल चलते हैं और उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त की रात्रि व जघन्य बारह मुहूर्तका दिन ६ है. जो ऐमा कहते हैं कि किंचिन्मात्र जम्बूद्वीप व किंचिन्त्रात्र लवण समुद्र अवगाहे विन. सर्य चल चलते हैं उनका. कथन इस प्रकार है कि जब सूर्य सब से आभ्यन्तर मांडले पर रहकर चाल चलते तब किंचिन्मात्र दंप क्षेत्र को अवगाहे बिना चाल जलते हैं. उस समय अठारह मुहूर्त का दिन व बारह मुहूर्त की रात्रि होती है. और जब सूर्य सत्र के शहर के मंडलं पर चाल चलता है तब किंचि1-1- ma rai बिना चलते हैं, उस समय अठारह मुहर्त की रात्रि व बारह मुहूर्त का दिन प्रकाशक-राजासादुर लाला सुखदेवमहायजी चालाप्रसादमी. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600254
Book TitleAgam 17 Upang 06 Chandra Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
Publication Year
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_chandrapragnapti
File Size8 MB
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