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सप्तदश-चंद्र प्रज्ञप्ती सूत्रपष्ट-उपाइ
. वट्ठीभूए उभओवि बोयणे दुहओ उणए मज्झयण गंभीरए गंगापुलिण वालुता उद्दालि सलिलए उचिते पुपालपट्टपडिच्छपणे विरतिया ताणे रत्ते सुत्तबुडे सुरम्भे आयणिगसुप बूरणयमिततुलफासे सुगंधवर कुसुमतृणसयणोधकारिकासिए तारिसयाए भारियार सहिं लिपारागार चालवलाए लंगय जाय जोवणविलास कलियाए अणुरत्तार अविरल र काणेणुकुल र साई ३४ सदफरस रूयगंधे पचबिहे माणसए कामभागे पचणभयनाणा विहरेज्जा तिसेणं परिसे वितस्मकाल समयंसि
केरियं लाता सोक्खं पञ्चशुभवमाणे विहरति ?एतेणं समणाउसो ! तस्सणं पुरिसरस याको बाग, चाा नरफ समान, दोनों बाजु माल मसूर, दोनों वाजू कुच्छ ऊंचा, मध्य भाग गंभीर. जैस मंगा नदी की धालु पानी में स्वच्छ दिखती है वैसे ही स्वच्छ चादर से चारों नरफ अच्छी तरह टका हुवा, भय, बुर नानि समान कोमल, सुगंधित प्रधान पुष्प समान शैय्या में शृंगार के घर समान यात यावनी बिलासयता व मन को अनुकूल भार्या की साथ इष्ट शब्द, रूप, गंध, रस व पर्श यों है। पांच प्रकार के मनुष्य संबंधी क मभोग भोगता हुवा विचरता होवे. उस पुरुषका उस समय कैसा सुख होवे ? अहो कायुष्यंत श्रमणो ! उस पुरुष के काम भोग स वाणव्यंतर के काम भोग अनंतगुने विशिष्टनर हैं.
बीनना पाहुडा 4
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