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सत्र
48 सप्तदश-चंद्र प्राप्ति सब प-उपाङ्ग480+
॥ एकादश प्रामृतम् ॥ ता कहं ते संबच्छराणं आदि आहितेति वदेजा ? तत्थ खलु इमे पंच संवच्छरा पूण् गत्ता चंदे, चंद, अभिवड्दिए, चंदे, अभिवहिए ॥१॥ ता एतसिणं पचण्ह संवच्छराणं पढमरस चंद संवच्छरस्स के आदि अहितति वदजा ? ता जेणं पंचमस्स
अभिवाट्ठिय संवच्छरस्स पज्जवासणे सणं पढमस्स चंद संवच्छरस्स आदि अणंतर र अब अग्यारवे पाहुडे में संवर की आदि अंत की वक्तव्यता कहते हैं. अहो : भगवन् ! संवत्सरकी
आदि किस प्रकार कही? अह। गौतम ! संवत्सर पांच कहे हैं जिन के नाम-१ चंद्र २ नंद्र ३ अभिFवर्धन ४ चंद्र और ५ अभिवर्धः॥१॥ इन पांच संवत्तर में से प्रथम वंद्र मंवत्सर की कहां आदि कही है ?
अहो गौतम ! जो पांचा अभिवर्धन संकलर का पर्यवमान है उस में अंतर रहित पूर्व कृत समय जो है वही प्रथम चंद्र संवलर की आदि है. अहो भगवन् ! प्रथम चंद्र संवत्सर का पर्यवसान कैसे कहा?
हो गौतम ! दूसग चंद्र मंवत्सर की आदि है वही प्रथम चंद्र संत्सा का पर्ययवसान है, दूसरे चंद्र संवत्सर में अंतर रहित जा पीछला समय है वहां प्रथम चंद्र संवत्सर का पर्यवसान है, उस समय प्रयन चंद्र संवत्सर के अंत में चंद्र कौनसा नक्षत्र की माथ योग करता है ? उस समय चंद्र उत्तराषाढा न त्र की साथ योग करता है. यह नक्षत्र २६ मुहूर्न २६ भाग ६२ ये और ५४ चूरणिये भाग ६७ वे इतना
488420 इग्यारहवा पाहुडा 48
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