________________
२३१
49 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 20
अर्थ
संक्च्छरे, जगसंवच्छरे, पमाणसंबच्छरे, लक्खणसंवच्छरे, सनिच्छरसंबच्छरे । १ ॥ णक्खत्तसंवच्छरे कतिविहे पण्णसे ? दुवालसबिहे पण्णत्ते तंजहा-सावणे, भद्दवए जाव आसाढे॥जाव वहसति तमहग्गहे, वालसहिं संवच्छरोहि सव्वणक्खत्तमडलं समाणेति ॥ २ ॥ ता जुगसंवच्छरे पंचविहे पण्णत्ते तजहा-चंद,चंद, अभिवाड्दए, चंदे, अभिवड़िए ॥ ता पढमस्सणं चंद संवच्छरस्स चउविसं पव्वा पण्णत्ता ॥
दुच्चरसण चंद संवच्छरस्स चउवीतं फव्वा पण्णत्त। तच्चस्सणं अभिवड्डिय संवच्छरस्स होवे मो. ३ युग का प्रमाण सो प्रमाण संवत्सर ४ लक्षण सहित सो लक्षण संवत्मर और ५ शनिश्चर से बना सो शनिश्चर संवत्सर।। १ ॥ इस में मे नक्षत्र संवत्सर के कितने भेद कहे?अहो शिष्य नक्षत्र, संवत्सर के बारह भेद कहे हैं. तद्यथा-१ श्रावण भाद्रपद यावत् अपाढ. एक नक्षत्र पर्याय को बारह गुणा करने से नक्षत्र संवत्सर पूर्ण होवे यावत् वृहस्पति नामक हानाह बारह संवत्सर में सब नत्रक्ष मंडल का समास कर. यह नक्षत्र संवत्मर ३२७ दिन ५१ भाग ६५ या का है उसे बारह गुना करने से ३९३३ दिन १९ भाग ६७ ये इतने काल में वृहस्पति नामक महागृह योग अंगीक र कर अठाइस नक्षत्रों संपूर्ण करे॥२॥ युग संवत्सर के पाच भेद कहे हैं १ प्रथम चंद्र संवत्सर २ दूसरा चंद्र संम्मर ३ तीसरा अभिवर्धन संवत्सर४ चौश चंद्र संवत्सर और पांचवा अभिवर्धन संवत्सर इन में से प्रथम चंद्र पंवत्सर के चौवीस पर्व
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ०
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org