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4. अनुवादक-बालब्रह्मचारीमान श्री अमोलक ऋषिजी ..
पता "जयाण जबदौ दोव दाहिणई पढमे समए उसपिणि जाव पाडवजात.
तयाणं उत्तरदाय पंढमे - समए उसप्पिणी पडिवजति, सयाणं जंबूद्दीव दीवे ' मंदरस्स पयस्त पुरथिमेणं पञ्चत्यिमणं ओसप्पिणी वत्थि, तत्थ काल पण्णते
समणाउसी ! ॥ ८ ॥ एवं लवणसमुद्दे धायतिसंडे कालोए ता अब्भतर . कहना, जर इस जम्बूद के दक्षिणा में प्रथा उत्पणा होती है ता उत्तर में प्रथम उत्सावणी होती है, जब उत्तर दक्षिणा में भम उरविगी होनी है तब जम्न्दी के पूर्वपश्चिम में अवमर्पिणीपई उत्सरणीशी हातवां व समान का अदा अ युदन् ।८॥पर ही रणनमा का जानना. जैमेजबुद्धी में हो सके उदय अस्त का. दिशा विदिशा का न हा तसा लवण ममुद्र का भी कहना. परंतु इतना विशावण अयुद्ध में बार बार सूप है. जिनमें मदा मूर्य जम्बदीपक दक्षिणा के सूर्य की श्रणी और दा सूर्य जंबद की उत्तार्थ कार्य की श्रेणी में हैं. जब जद्रोप में एक मूर्य । दक्षिण के मध्य उदय पावे उम की पमश्रण पनिवद्ध दो सूर्य लवण समुद्र में दक्षिण पूर्व में उदय पप यो उदयगर गर्य उस समम प्रतिभा सर्ग और भा जाणममुद्र के पश्चिम उत्तर में उदय पाने । उदयनजदंप क मर्ग जसा मानता. मलाण ममुद्र क दणाध है में दिन होलानालाण दत्त म भा दाहालाई और जब ध न होता तब दाक्षणार्ध में भी दिन होवे एड नव नाणमुद्र इत्तरदगमदिनता नालसमद्र के पूर्वपश्चिम विभाग में रात्रि हाता है. और जब लवण समुद्र के पूर्व पश्चिम विभाग में दिन होता है तब उत्तर दक्षिण विभाग में रावि होती है, जितना दिन का प्रमाण जम्बूद्वीप में कहा उतना ही लवण समुद्र में जानना. यावतू
प्रकाशक-राजावहादूर लालामुखदेवमहायजी ज्वालामसादजी.
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