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अनवादक-पालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक शपिजी.
॥सप्तम प्राभृतम् ॥ लो किंते गरिए चरति आहितेति वदेजा ? तत्थ खलु इमातो वीस पाडवत्तीओ पण्णताओ संजहा-तत्थ खलु एगे एवं मासु तामंदरणं पवते सूरियं चरति आहितेति वंदेजा, एगे एव माहंसु ॥ १ ॥ एगे पुणतामे रूणं पब्बए मारिए चरति आहितेति एवं एतणं अभिलावेणं जाव बीसइमा पडिवत्ती जाव ता पव्वयराणं पवते सूरियं चरति आहितेति,वदेजा एग एव माहंम् ॥ २॥ त्रयं पुण एवं बघामो-मंदरेवि पवुच्चति मेझवि पवुच्चति, एवं जाव पन्वयराएणं पव्वुच्चति ता जेणं पागला सरिथरस लेसं फुसंति ।
श्रा सातवा पाहुडा कहते हैं, अह भगवन् ! आपके पत में मूर्य प्रकाश केसे करता है ? अहो गौतम ! इस विषय में अन्यनीकी रूपणा रूप वीस पदित्तियों कही हैं कितनेक ऐसा र हैं कि मंदर पर्व: स सूर्य प्रकाश कर २ कितने ऐसा कहते हैं कि मेह पर्वत से सूर्य प्रकार करे पावत् पर्वतराज से सूर्य प्रकाश करे, यों जिम प्रकार पांचा पाहुड में सूर्य की लेश्या का कथन किया वैसे ही यहाँ मतांतरों कहना. मैं इस कथन को ऐसे कहता हूं कि मंदर मेरु यावत् पर्वत राज से मूर्य प्रकाश करतापयों कि सब नाम एक अर्थवाची है, यो जो पुदगल सूर्य के भाताप को स्पर्शते हैं उनहीं पुद्रल
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी .
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