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________________ सप्तदश चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र-षष्ठ उपाङ्ग 484 एवमाम॥१४॥एगेपुण तासेयाणग संठियाणं ताव खेत्तं संठिइ एगेएवं माहं॥१५॥ एगेपुण सेयणपिट्ठ संठियाणं ताव खत्तं संठिइ, आहितेति बदजा ॥ एग एक माहंसु ॥ १६ ॥ वयं पुण एवं व्यामो ता उडमहकलं व्या पुष्फ संठियाणं ताव खत्तं संठिीत आहितेति वदेजा, अंतो संकुडा बाहिं विच्छिष्णा अंतो इट्टा बाहिं पहला अंतो अंकमुहुरा संट्रिया बाहिं सत्थीमुह संट्टिया, उभोपासिती से दुव वाह ओ अवटियाओ भवंति, पणयालीसं २ जोयण सहस्सातिं आयामणं दुचे वाहा, तीसणं दुवे बाहातो अणकितनेक ऐसा कहते हैं साँचानक के आका वाला तापक्षेत्र है और १६ कितनेक ऐसा कहते हैं सींचान के पृष्ट भाग के आकार वाला ताप क्षेत्र है. ॥२॥ में इस कथन को इस प्रकार करता हूं कि जर्भमुख कलंबु (धतुरे) के पुष्प के संस्थान वाला तापक्षेत्र है. वर अंदर मे मेरुपर्दन की पाम साडा और बाहिर लरण समुद्र में चौडा है. बाहिर समुद्र की तरफ विस्तीर्ण अंदर मर्नु ाकार. वाहिर चौडा अंदर अंकमहू के मंस्थान वाला. जैसे कइ मनुष्य मेरुकी न फष्टकर बैठे और जमुद्रकी तरफ पालखी कर बैठे तब उस की पालखा का संस्थान मेरु की तरफ सडर व ममद्र की तरफ चौडा है ऐसा ही सूर्य के तापक्षेत्र का संस्थान जानना. उम तापक्षेत्र की मेरु पर्वत के दोनों तरफकी दोनों बांये पेंतालीस२ हजार योजन की लम्बी है चौडाइ अनवस्थित है. अहो भगवन् ! यह किस हेतु से कहा है ? उत्तर-यह 44488+ चौथा पाहुडा 42+ अर्थ 8 4 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.600254
Book TitleAgam 17 Upang 06 Chandra Pragnapti Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRaja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
Publication Year
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_chandrapragnapti
File Size8 MB
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