________________ योगस्पष्टा // 40 // मनोजयेऽमनस्कतां परमं कारणमाह द्वादशः शास्त्रम् || अतिचञ्चलमतिसूक्ष्मं दुर्लक्ष्यं वेगवत्तया चेतः। अश्रान्तमप्रमादादमनस्कशलाकया भिन्द्यात् 41 प्रकाशः। // 363 // अमनस्कमेव शलाका प्रहरणविशेषः / शेषं स्पष्टम् // 41 // पुनरमनस्कोदये योगिनः फलमाह विश्लिष्टमिव प्लुष्टमिवोड्डीनमिव प्रलीनमिव कायम् / अमनस्कोदयसमये योगी जानात्यसत्कल्पम् // 42 // स्पष्टा // 42 // तथा समदैरिन्द्रियभुजगै रहित विमनस्कनवसुधाकुण्डे / मग्नोऽनुभवति योगी परामृतास्वादमसमानम् // 43 / / स्पष्टा // 43 // तथा रेचकपूरककुम्भककरणाभ्यासक्रमं विनाऽपि खलु / स्वयमेव नश्यति मरुद्विमनस्के सत्ययत्नेन // 44 // स्पष्टा // 44 // तथा 363 // Jain Education inte For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org