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उत्तराध्य.
बृहद्वृत्तिः
॥६५८।।
त्रय उदधयः सागरोपमाणि द्वावुदधी - द्वे सागरोपमे, दशोदधयो- दश सागरोपमाणि, 'तेत्तीस 'ति त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, पठन्ति च सर्वत्र 'मुहुत्तद्धा उत्ति, तत्र मुहूर्त्त (र्त्तार्ध) शब्देन प्राग्वदन्तर्मुहूर्त्तस्योक्तत्वादन्तर्मुहूर्त्तकालमिति सूत्रषङ्कार्थः ॥ सम्प्रति प्रकृतमुपसंहरन्नुत्तरग्रन्थसम्बन्धमाह -
एसा खलु लेसाणं ओहेण ठिई उ वणिया होइ। चउसुवि गईसु इत्तो लेसाण ठिई उ वुच्छामि ॥ ४० ॥ स्पष्टमेव, नवरम् 'ओघेन' इति सामान्येन गतिभेदाविवक्षयेतियावत्, 'चतसृष्वपि गतिषु' नरकगत्यादिषु प्रत्येकमिति शेषः, 'अतः' इत्यो घस्थितिवर्णनानन्तरमिति सूत्रार्थः ॥ प्रतिज्ञातमेवाह -
दसवाससहस्साई काऊ ठिई जहन्निया होइ। तिन्नोदही पलिय असंखेज्जभागं च उक्कोसा ॥ ४१ ॥ तिष्णुदहीपलिओ ममसंखभागो जहन्ननीलठिई । दसउदही पलिओ व ममसंखभागं च उक्कोसा ॥ ४२ ॥ दसउदही पलिओवममसंखभागं जहनिया होइ। तित्तीससागराई उक्कोसा होइ किण्हाए ॥ ४३ ॥ एसा नेरईयाणं लेसाण ठिई उ वण्णिया होइ । तेण परं वुच्छामि तिरियमणुस्साण देवाणं ॥ ४४ ॥ अंतोमुहुत्तम लेसाण ठिई जहिं जहिं जा उ । तिरियाण नराणं वा वजित्ता केवलं लेसं ॥ ४५ ॥ मुहुत्तद्धं तु जहन्ना उक्कोसा होइ पुव्वकोडी उ । नवहिं वरिसेहिं ऊणा नायव्वा सुक्कलेसाए ||४६|| एसा तिरियनराणं लेसाण ठिई उ वण्णिया होइ। तेण परं वुच्छामि लेसाण ठिई उ देवाणं ||४७|| दसवाससहस्साई किण्हाए ठिई जहन्निया होइ
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लेश्याध्य
यनं. ३४
॥६५८॥
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