SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 45 सम्यक्त्व पराक्रमा. उत्तराध्य. भंते! जीवे कि जणेइ , २ अणुस्सुयत्तं जणेइ, अणुस्सुए णं जीवे अणुकंपए अणुब्भडे विगयसोगे चरित्तमो हणिज्जं कम्मं खवेइ २९ ॥ अपडिबद्धयाए णं भंते ! जीवे किं जणेइ १, २ निस्संगत्तं जणेइ, निस्संगत्तेणं जीवे बृहद्धृत्तिः एगे एगग्गचित्ते दिया य राओ य असजमाणे अप्पडिबद्धे आवि विहरइ ३०॥ विवित्तसयणासणयाए ॥५७५॥ हाणं भंते! जीव किं जणेइ , २ चरित्तगुत्तिं जणेइ, चरित्तगुत्ते णं जीवे विवित्ताहारे दृढचरित्ते एगंतरए मुक्खभावपडिवन्ने अट्टविहं कम्मगंठिं निजरेइ ३१॥ विणिवणयाए णं भंते ! जीये किंजणेइ , २ पावकम्माणं अकरणयाए अन्भुढेइ पुत्ववद्धाण य निजरणयाए पावं नियत्तेइ, तओ पच्छा चाउरंतं संसारकंतारं वीईवयइ ३२ ॥ संभोगपञ्चक्खाणेणं भंते !जीवे किंजणेइ १,२ आलंबणाई खवेइ, निरालंबणस्स य आययट्ठिया जोगा भवन्ति, सएणं लाभेणं संतूसइ परस्स लाभं नो आसाएइ नो तक्केइ नो पीहेइ नो पत्थेइ नो अ-1 भिलसइ, परस्स लाभं अणासाएमाणे अतकेमाणे अपीहेमाणे अपत्थेमाणे अणभिलसेमाणे दुचं सुहसिज्ज ६ उवसंपज्जित्ता णं विहरइ ३३॥ उवहिपचक्खाणेणं भंते !जीवे किं जणेइ ?,२अपलिमंथं जणेइ, निरुवहिए णं जीवे निकखे उवहिमंतरेण य न संकिलिस्सइ ३४॥ आहारपञ्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किंजणेइ, २ जीवियासंसप्पओगं वुच्छिदइ, जीवियासंसप्पओगं वुच्छिदित्ता जीवे आहारमंतरेण न संकिलिस्सइ ३५॥ कसायपच्चक्खाणेणं भंते ? जीवे किं जणेइ ?,२ वीयरायभावं जणेइ वीयरायभावं पडिवन्नेऽविय णं जीवे समसुहदुक्खे भवइ ३६ ॥ जोगपञ्चक्खाणेणं भंते !, २ अजोगयं जणेइ, अजोगी णं जीवे नवं कम्मं न बन्धइ पुव्वबद्धं SARORSCORA **SHRSHA ॥५७५॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600236
Book TitleUttaradhyayansutram Part 03
Original Sutra AuthorVadivetal, Shantisuri
Author
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1917
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy