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________________ पंचमोड विद्यारत्नमहानिधी धिकारः ५ मायाहंकार युक्तेषु, श्रद्धाहीन दुरात्मसु । निर्गुणेषु य एतास्तु, मंत्रान् दाता स्वदोषतः ॥१९॥ सोनन्तं लप्स्यतेसद्य, संसार दुःखरूपिनम् । अनन्तानि च दुःखानि, शिस्यस्यापि प्रदास्यति ॥ २० ॥ इति ज्ञात्वा प्रयत्नेन, एकांते गुरुभक्तितः । भक्तियुक्ताय शिष्याय । दद्याद् मंत्रमनुत्तरम् ॥ २१ ॥ भाषा-मायी, अहंकारी, श्रद्धाहीन, दुष्ट, निर्गुण इत्यादिको मंत्र देवेतो देनेवाला दोषीहै. वो अनन्त संसारके दुःखमें अनंतवार भ्रमण करेगा. शिष्यभी अनंत संसारके अनन्त दुःखका अनुभव करेगा. ऐसा जानकर गुरुमहाराजने भक्त शिष्यको गुरुभक्तिके साथ एकांतमें मंत्र देना चाहिये. द्वात्रिंशिकाया यःकल्पं, भक्तियुक्तःकरिष्यति । सदभ्यस्तं सदातस्य, सर्वज्ञत्वं भविष्यति ॥ २२ ॥ इहलोकेपिदुःखानि, दारिद्रानिच दुरतः । क्षयंतस्य प्रयास्यन्ति, योमुष्मै भक्तिबंधुरः ॥२३॥ तस्मादेतांमहामंत्र, द्वात्रिंशिकांमहामतिः । अनाख्येयामयोग्यनां, स्वयंनित्यं विभावयेत् ॥ २४ ॥ |भाषा-जो मनुष्य भक्तियुक्तद्वात्रिंशिंका कल्पका अभ्यास करताहै वह सर्वजके समान हो जाता है. उसका इस लोककी दरीद्रावस्था आदि दुख दुरसेही क्षय होता है. इसलिए महामति (मुनि) ने स्वयं विचारकरके अयोग्य मनुष्यको नहीं देना चाहिये. REARRIAGRANEMIERSware For PersonasPrivate Use Only
SR No.600214
Book TitleVidyaratna Mahanidhi
Original Sutra AuthorBhadraguptasuri
Author
PublisherMahavir Granthmala
Publication Year1936
Total Pages50
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size5 MB
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