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विद्यारत्न
|पंचमोऽ धिकारः ५
महानिधी
| शत्रुरुपीच शत्रुस्तु, मृत्युदो मृत्यु नामकः । नैमौकस्यापि दातव्यौ, परलोकफलार्थिभिः॥७॥ *भाषा-सिद्ध सारफल देनेवाला जानना साध्य-साध्यफल देनेवाला जानना भक्तिशालीको आचार्य महाराजने देना,
सुसिद्ध स्वल्प फल देनेवाला मंत्र जानना वहां भी शरीरधारीको उसका हित विचारते हुये देना, शुत्रुरुपी-शत्रु समझना. मृत्युद-मृत्युको देनेवाला है. परलौकीक फलकी इच्छा करनेवाले आचार्योने यहदोनो मंत्र किसीको नहीं देना.
अ इ उ ए ओ पंचतान् , स्वरान् कोष्टकपंचके । कादिकान् हान्त वणोन्च, डढणाक्षरवर्जितान्॥८॥
वर्णक्रमेण संलिख्य, मातृकाचक्र मुज्वलम् । योग्यायोग्यं ततोचिन्त्यात , मंत्रं शिष्यद्वयोरपि॥९॥ भाषा-अ, इ, उ, ए, ओ, ये पाच खर पांच कोठेमें लिखके उसके नीचे क, से लेकर ह पर्यंत के वर्ण डढण अक्षर छोडके वर्णक्रमसे लिखना; यह मातृका चक्र लिखकर गुरुशिष्यदोनोने योग्यायोग्य विचार करना.
सिद्धं वा यदिवा साध्यं, मंत्र प्राप्य दुरासदम् । शिष्येनापिविधातव्या, सद्गुरो भक्तिरीदृशी ॥१०॥ भोजनं वस्त्र दानंच, पात्रदानं तथैवच । दानं सारसुवर्णस्य । विधातव्यं मनीषिना ॥११॥
पादप्रक्षालनं चैव, पृष्टिसंवाहनंतथा । स्वयमासनदानंच, कर्तव्यं सद्गुरोरिह ॥१२॥ भाषा-सद्गुरुसे, दुर्लभ ऐसे सिद्ध वा साध्य मंत्रप्राप्तकरके शिष्यने गुरुभक्तिकरनी चाहिये, अन्नपान, वस्त्र, पात्र, आदिका दानदेना, सुवर्ण मुद्रासे ज्ञानपुजा करनी गुरुमहाराजका पगधोना, अंगदबाना, स्वयं उठकर आसनदान
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