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________________ तिकाय, वेइंद्री तेइन्द्री चौरिन्द्री पंचेंद्री जीवप्रतें संघट्ट परिताप उपद्रव उपजाव्यो. देहरे उपासरे जावतां || आवतां निस्सही आवस्सही कहेवी वीसारी, गुरुतणो वचन तहात्त करी सरदह्यो नहीं, मात्रो अविधे 3 परिठव्यो, जो कोई दिवस संबंधिपाप दोष लाग्यो होय ते सव्वे हुं मन वचन कायायें करी तस्स मिच्छामि | दुकडं ॥ सव्वस्स वि देवसिय दुचिंतिय दुब्भासिय दुचिठिअ, इच्छाकारेण संदिस्सह, इच्छं, तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥ इति ॥ दैवसिक अतिचारः॥ . ॥४॥ रात्रिक अतिचारः॥ ___ संथारा उवट्टणकी आउट्टणकी परिअणकी पसारणकी छप्पइया संघट्टणकी अचक्खू विसयकायकी । रात्रिसंबंधी पाप दोष लाग्यो, आहट्ट दोहट्ट चिन्तव्यो, आर्त रौद्रध्यान ध्यायो, धर्मध्यान शुक्लध्यान ध्यायो नहीं, संथारो पाछो वालतां, मात्रो अविधे परिठवतो. जो कोई रात्रिसंबंधी पाप दोष ला ग्यो होय, ते सब्बे हुं मन वचन कायायें करी तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥ सव्वस्स वि राइअ दुचिंतिअ, | दुब्भासिअ, दुच्चिट्टिअ इच्छाकारेण संदिस्सह, इच्छं, तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥इति॥रात्रिक अतिचारः॥ JainEducation in For Personal P Use Only
SR No.600208
Book TitleSadhu Pratikramanadi Sutrani
Original Sutra AuthorJagjivan Jivraj Kothari
Author
PublisherJagjivan Jivraj Kothari
Publication Year1925
Total Pages92
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size8 MB
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