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________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ११७८ FEEEEEEEEEEEEEEEEETINGSFDATTTTTL संठाणपरिणया जे उ, पंचहा ते पकित्तिआ । परिमंडला य वट्टा, तंसा चउरंसमायया ।। २१ ।। व्याख्या - संस्थानानि आकारास्तैः परिणताः संस्थानपरिणताः परिमण्डलं मध्यशुषिरं वृत्तं वलयवत्, वृत्तं मध्ये पूरणं झल्लरीवत्, त्र्यनं त्रिकोणं शृङ्गाटकवत्, चतुरस्रं चतुष्कोणं वर्यपट्टादिवत्, आयतं दीर्घं दण्डादिवत् ।। २१ ।। अथैषामेवान्योन्यं संवेधमाह - वण्णओ जे भवे किण्हे, भइए से उ गंधओ । रसओ फासओ चेव, भइए संठाणओवि अ ।। २२ ।। व्याख्या - वर्णतो यः स्कन्धादिर्भवेत्कृष्णो भाज्य: 'से उत्ति' स पुनर्गन्धतः सुरभिर्दुर्गन्धो वा स्यान्न तु नियतगन्ध एवेति भावः । एवं रसतः स्पर्शतश्चैव भाज्यः, संस्थानतोऽपि च । अन्यतर रसादियोगादिति तत्त्वम् ।। २२ ।। वण्णओ जे भवे नीले, भइए से उ गंधओ । रसओ फासओ चेव, भइए संठाणओवि अ ।। २३ ।। वणओ लोहिए जे उ, भइए से उ गंधओ । रसओ फासओ चेव, भइए संठाणओवि य ।। २४ । ओ पी जे उ, भइए से उ गंधओ । रसओ फासओ चेव, भइए संठाणओवि अ वण्णओ सुक्किले जेउ, भइए से उगंधओ । रसओ फासओ चेव, भइए संठाणओवि अ गंध जे भवे सुभी, भइए से उ वण्णओ । रसओ फासओ चेव, भइए संठाणओवि अ ।। २७ ।। ।। २५ । ।। २६ ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only 閣閣閣閣閣閣閣閣お困 जीवाजीव विभक्तिनाम षटत्रिंशमध्ययनम् १९७८ www.jninelibrary.org
SR No.600207
Book TitleUttaradhyayan Sutram
Original Sutra AuthorBhavvijay, Matiratnavijay
Author
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2004
Total Pages1274
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_uttaradhyayan
File Size18 MB
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