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उत्तराध्ययन
सूत्रम् ११२२
Is प्रमादस्थान
नाम द्वात्रिंशमध्ययनम्
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गंधाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि । तत्थोवभोगेवि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ।। ५८।। एमेव गंधम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ । पदुट्ठचित्तो अचिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ।। ५९।। गंधे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमझेवि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ।। ६० ।।३।। जीहाए रसं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु । तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु, समो अ जो तेसु स वीअरागो ।। ६१।। रसस्स जिब्भं गहणं वयंति, जिब्भाए रसं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समणुण्णमाहु, दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु ।।६२।। रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालिअंपावइ से विणासं । रागाउरे बडिसविभिन्नकाए, मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे ।। ६३ ।।
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