SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वात्मस्थितिरूप मोक्षनी प्राप्ति थाय छे, तेथी परंपराए सर्व कल्याणोनुं भाजन विनय छ अर्थात् विनयगुणवडे उत्तरोत्तर सर्व श्रेय सधाय छे अने समस्त क्लेशनो सर्वथा क्षय करी, अक्षय अनंत अव्याबाध एबुं मोक्षसुख प्राप्त थाय छे. ७२-७४ .." परंतु जे अविनीत छ तेमने केवो फळविपाक वेदवो पडे छे ? ते कहे छे." विनयव्यपेतमनसो गुरुविद्वत्साधुपरिभवनशीलाः। त्रुटिमात्रविषयसङ्गादजरामरवन्निरुद्विग्नाः ॥ ७५ ॥ केचित्सातर्द्विरसातिगौरवात्सांप्रतक्षिणः पुरुषाः । मोहात्समुद्रवायसवदामिषपरा विनश्यन्ति ॥ ७६ ॥ भावार्थ-विनयशून्य मनवाळा अने गुरु, विद्वान तथा साधुओनो पराभव करनारा, रंचमात्र विषयनी प्राप्तिथी अजरामरवत् निर्भय बनेला, रसगारव, ऋद्धिगारव अने शातागारवथी आगळ पाछळनो विचार नहीं करनारा अने वर्तमान सुखने ज जोनारा केटलाएक पुरुषो मोहथी मांसलोलुपी समुद्रवायसनी पेरे विनाशने पामे छे. ७५-७६ विवेचन-पूर्वोक्त विनयशून्य मनवाळा तथा प्राचार्यादिक गुरुजनोनो, चौदपूर्व विगेरेना अर्थ जाणनारा ज्ञानी जनोनो, तेमज रत्नत्रयीवडे मोक्षने साधनारा साधुजनोनो पराभव-अनादर करवावाळा ( अविनीत जनो) एक रंचमात्र विषयसुखना संगथी तेनुं परिणाम नहि विचारता जाणे पोते जन्ममरणथी मुक्त थया होय तेम पोताने निर्भय मानता फरे छे. एज वातने शास्त्रकार वधारे स्पष्ट करे छे. वळी मोह-अज्ञानवश केटलाक परमार्थना अजाण लोको अनेकप्रकारनी सुखशीलता, अनेकप्रकारनी परिग्रह ममता Jain Education in For Personal Private Use Only P w.jainelibrary.org
SR No.600205
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1932
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy