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________________ वैराग्यमार्गसंस्थितस्य संसारवासचकितस्य । स्वहितार्थाभिरतमतः शुभेचमुत्पद्यते चिन्ता ॥ ६३ ॥ भावार्थ-आनुं मूळ कारण जाणीने नेनो उच्छेद करवाने उद्यमवंत, दर्शन-चारित्र-तप-स्वाध्याय भने ध्यानयुक्त हिंसा-असत्य-अदत्त-अब्रह्म अने ममत्व रहित, नव कोटी शुद्ध निर्दोष आहारमात्रथी संयम पाळनार, जिन सर्वज्ञभाषित सिद्धान्तने भावनार, लोकतत्वना जाण, अढारहजार शीलांगना धोरी, अपूर्व परिणामने प्राप्त थयेल, शुभभावना-अध्यवसाय युक्त, आगममा अन्योन्य एक बीजाथी अधिक रहस्यने जोनार, वैराग्यमार्गमा लीन, संसारवासथी उभगेल (त्रासेल) अने मात्महितने माटे उजमाळ थयेल ( भाग्यवंत ) ने प्रावी शुभ चिन्ता उत्पन्न थाय छे. ५६-६३. विवेचन-आ महा दोषसंचयरूप जाळर्नु मूळ कारण जाणीने, मारे ा महाजाळने छेदी नांखवी एवा निश्चय-* पूर्वक तेनो छेद करवाने जे उत्साहवंत छ तेमज तत्वार्थश्रद्धानरूप दर्शन, गामायिकादिक चारित्र, अनशनादिक द्वादश प्रकार तप, वाचना पृच्छनादिक पंचविध स्वाध्याय अने एकाग्र चित्तनिरोध लक्षण धर्म-शुक्लध्यान, उक्त सम्यग्दर्शनादिक परिणामोथी जे युक्त छे; वळी प्रमत्तयोगथकी प्राणविनाशरूप प्रायवध, 'आत्मा नथी एवी रीते सद्भुत वस्तु नो अपलाप करवो, आत्मा सर्वगत (सर्वव्यापी) के एवी रीते असद्भूत वात कहेवी,' तथा विपरीत अने कटुक सावद्यादि वचन बोलवारूप असत्य भाषण, कुबुद्धिथी पराइ वस्तु पोतानी करी लेवारूप परधन हरण, स्त्री-पुरुष के नपुंसक वेदना उदयथी पुरुष, स्त्री के तदुभयनुं सेवन करवारूप मैथुन अने ममत्वलक्षण परिग्रह, 'आ धन मारुं छे, हुं एनो स्वामी ढुं.' शरूप प्रावधानी तथा विपरकाष के नपुंसक . Jain Education For Personal & Private Use Only I tna.sainelibrary.org
SR No.600205
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1932
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size19 MB
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