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________________ श्री प्रशमरति प्रकरयम् ॥१०॥ अर्थ-पूर्व प्रयोगनी सिद्धिथी, बंधनना छेदथी, प्रसंग भावथी अने गति परिणामथी सिद्ध भगवाननी उर्च गति प्रसिद्ध छे.* २६४ विवेचन-शुक्ल ध्याननो सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाती नामनो त्रीजो पायो निपजावता, तेमा देह त्रिभागहीन स्वप्रदेशनो घन करता क्रियानो ज संस्कार रहेलो के ते पूर्व प्रयोगवडे ( कुंभारे प्रथम दंडवती भमाडेला भने पछी स्वयमेव भ्रमण करता चाकडाना भ्रमणनी पेरे ) भने बंधन छेदथी एरंडबीज कुलिकानी पेरे कर्मबंधन त्रुटी जवाथी मुक्त आत्मानी उर्ध्व गति सिद्ध थाय छे. वळी लेपरहित थयेनुं तुंबडं जेम जलनी सपाटी उपर आवे के तेम सर्व संग रहित एटले प्रसंग भावथी अने दीपशिखा अथवा अग्निनो धुमाडो जेम स्वाभाविक रीतेज उंचे जाय के तेम मुक्त आत्मा उर्ध्व गमनज करे छ. मतलब के चक्रभ्रमणनी पेरे पूर्व प्रयोग सिद्ध थवाथी, एरंडफळना बीजनी पेरे बंधन छेदथी, तुंबडीनी पेरे असंग भावथी अने धुमाडानी पेरे गतिपरिणामथी सिद्ध भगवाननी उर्ध्वज गति थाय छे, एम सिद्ध थाय छे. २९४ त्यां तेमने अनुपम सुख छ, एम शाथी समजाय ते बतावे छे:देहमनोवृत्तिभ्यां भवतः सरीरमानसे दुःखे । तदभावस्तदभावे सिद्धं सिद्धस्य सिद्धिमुखम् ।। २६५ ॥ * संक्षेपमा मनुष्यादि भवरूप कारणोनो अत्यंत लय थइ जवाथी मुक्तने खरेखर मनुष्यक्षेत्र नहि पण सिद्धिक्षेत्रज आश्रयस्थान छ, संसारव्यापारना अभावथी तेमज शरीरादिक कारणना अभावथी मुक्त भात्मा अहीं संसारमा टकी रहे नहि. ॥१०॥ Jain Education international For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600205
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1932
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size19 MB
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