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श्री
प्रशमरति प्रकरणम् | ॥ ९९॥
औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः । मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तमषष्ठद्वितीयेषु ॥ २७५ ॥ कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके पश्चके तृतीये च । समयत्रयेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् ॥ २७६ ॥ - अर्थ-पहेला अने आठमा समयने विषे औदारिक शरीरना योगवाळा, सातमा, छठा अने बीजा समयने विषे
औदारिकमिश्र योगवाळा अने चोथा, पांचमा तथा त्रीजा समयने विषे कार्मण शरीरना योगवाळा ते केवळी भगवान होय छे. तेमां ( चोथा, पांचमा अने त्रीजा) त्रण समयने विष नियमा अनाहारी होय छे. २७५-२७६ ।।
विवेचन-पहेले भने पाठमे समये शरीरस्थ होवाथी औदारिक योगज होय छे अने कपाटर्नु उपसंहरण करतां सातमो, मन्थान संहरता छट्टो तथा कपाट करतां बीजो एत्रणे समयोमा कामण व्यतिमिश्र औदारिक एटले औदारिकमिश्र योग होय छे. मन्थानना आंतरा पूरवानो समय चोथो, मन्थानना आंतरा संहरवानो समय पांचमो अने मथान करवानो समय त्रीजी; ए त्रणे समयमा केवळ कार्मण शरीर योगज होय अने ते त्रणे समयमा जीव नियमा (निश्चे) अनाहारक ज होय.
ए रीते चारे कर्म सरखां करी समुद्घातथी निवर्तेला ते केवली भगवान् त्यारवाद मन वचन अने काया ए प्रणे योगनो निरोध करे छे. तेमा मनोयोग केवळी भगवानने होवो केम घटे ? तेनुं समाधान करे छे:स समुद्घातनिवृत्तोऽथ मनोवाकाययोगवान् भगवान् । यतियोग्ययोगयोक्ता योगनिरोधं मुनिरुपैति॥२७७
अर्थ:-हवे मन वचन कायाना योगवाळा ते केवळी भगवान केवळी समुद्घातथी निवा छतां मुनियोग्य योगथी
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