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श्री प्रशमरति
प्रकरणम्
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विवेचन – स्वगुण जे सम्यक्त्व, ज्ञान ने चारित्र - तद्रूप जे साधुगुण तेना अभ्यासमां रक्त एटले तेना अनुष्ठाननी वारंवार आवृत्ति करवामां तत्पर छे मति जेमनी एवा, पारकी वार्ता करवामां पारका चेष्टित जोवामां, पारका दोषनी हकीकत सांभळवामां जे मुंगा, अंध अने बहेरा छे अर्थात् जे पारका अवर्णवाद बोलताज नथी, पारका अयोग्य वर्त्तन सामी ष्ट करता नथीने पारका अवर्णवाद बोलाता होय ते सांभळताज नथी एवा, (अहीं पारका वृत्तांतनी अंदर पारका दोष साथै पारकागुनो पण समास थतो होवाथी तेने माटे एम खुलासा करेलो छे के पोतानाज सम्यक्त्वादि गुणनी वृद्धिमा व्यग्र होवाथी पारका गुण पण जोवामां, बोलवामां ने सांभळवामां तत्पर होता नथी ) तथा मद ते गर्व, मदन ते काम, मोह ते हास्य रति विगेरे, मत्सर ते चितस्थ एवो कोप के जे बहार प्रकट जणातो नथी, अर्थात् अन्य आक्रोशादि करना प्रत्ये जे सामो आक्रोशादि रूपे प्रकट थतो नथी ते, तथा रोष ते नेत्रनुं लाल थनुं, आक्रोश करवो, ताडना तर्जना करवी विगेरे बाह्य लिंग ( चिन्ह ) वाळो विकार अने विषाद ते स्वजनादिकनी आपत्ति जोइने हृदयमां थतो खेद इत्यादि दोषोथी जे पराभव पामेल नथी एवा, प्रशम सुखना अभिकांची अने अव्यावाध मोक्ष सुखना इच्छक तेमज मूळोत्तर गुणरूप जे सद्धर्म तेमां निश्चळ एवा उत्तम साधु मुनिराजने आ देव मनुष्यरूप सर्व लोकमां कोनी उपमा आपीए ? अर्थात् देवोमां ने मनुष्योमां प्रशम सुख जेवुं बीजुं कोइ सुखज नथी. मोक्ष सुख पण ते सुखथी वधे तेम नथी. प्रशमसुख ते संसारमा मोक्षसुखनी वानकी छे. तेनाज इच्छक जे होय तेने बीजी उपमा घटी शके ज नहीं. त्यां उपमान ने उपमेय एकज छे. २३५-३६
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