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एक ज्ञान ज्यारे कहेवाय त्यारे ा प्रमाणे केवळज्ञान एक एम समजवु. अथवा अक्षरात्मक श्रुतनो सर्वत्र संभव न होवाथी एकलु मतिज्ञान पण कहेवाय छे. बे ज्ञान मति ने श्रुत होय त्यारे कहेवाय छे. त्रण ज्ञान मति श्रुत ने अवधि अथवा मति श्रुत ने मनःपर्यव होय त्यारे कहेवाय छे. अवधिज्ञान विना पण मनापर्यवज्ञान थाय छे. चार ज्ञान मति श्रुत अवधि ने मन:पर्यव साथे होय त्यारे कहेवाय छे. आ प्रमाणे ते संख्यानी विवक्षा जाणवी.
सम्यग्दृष्टि जीव तत्वार्थश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन युक्त कहेवाय छे. तेनुं शंकादि शल्यरहित जे ज्ञान ते सम्यग्ज्ञान कहेवाय छे केमके ते यथावस्थित पदार्थने जाणनार छः अने ते निश्चये अविरुद्धपणे सिद्ध थयेल छे. मिथ्यादर्शनना योगी मति श्रुत ने अवधि ए त्रण ज्ञान सदसद् विशेष परिज्ञाननो अभाव होवाथी, यदृच्छाभाव होवाथी, उन्मत्तनी जेम असत् वस्तुनी उपलब्धि करावनार होवाथी अने ज्ञानना फळरूप विरतिनो तेमा प्रभाव होवाथी अज्ञान कहेवाय छे. एटले मिथ्यादृष्टि जीवोने मतिश्रुतादि होय ते मतिअज्ञानादिना नामथी ओळखाय छे. २२४ थी २२७.
आ पांच ज्ञान- स्वरूप घणुं विस्तारवारों छे, परंतु स्थळसंकोचना कारणथी अत्र तेनो विस्तार करवामां पाव्यो नथी.
सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान- निरूपण करीने हवे सम्यगचारित्रनुं निरुपण करवामां आवे छे ते चारित्रना पांच प्रकार बतावे छे:सामायिकमित्याचं छेदोपस्थापनं द्वितीयं तु । परिहारविशुद्धिकं सूक्ष्मसंपरायं यथाख्यातम् ॥ २२८ ॥
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