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________________ **3******** Jain Education International वंतनी प्रतिमाना देखवाथी अथवा साधु मुनिराजना दर्शन मात्रथी पूर्वोक्त प्रकारे सम्यग्दर्शन प्राप्त थाय छे ते निसर्ग समकित कहेवाय छे. शुभ परिणाम, निसर्ग ने स्वभाव ए त्रणे शब्दो एक ज अर्थना वाचक छे. हवे जे गुरुमहाराज विगेरेना उपदेशथी शुभ परिणाम उत्पन्न थाय छे अने तेथी ग्रंथीभेद थतां समकित प्राप्त थाय छे ते अधिगम समकित कहेवाय छे. शुभ परिणामनी तो बनेमां तुल्यता छे; मात्र कारण परत्वे ज भेद छे. शिक्षा, आगमोपदेश ने शास्त्रश्रवण ए त्रसे अधिगमना वाचक ज छे. सम्यग्दर्शन ते आत्मस्वरूपनुं वास्तविक देखयुं, ते तत्वार्थ श्रद्धानवडे ज थाय छे. एटले सम्यग्दर्शन ने समकित एकज वस्तु छे. २२२-२२३ ear प्रकारे प्राप्त थता समकितनी प्राप्ति तेमज तेनाथी विपर्यय भाव ते मिथ्यात्व छे एम कहे छे भने ज्ञानना भेद समजावे छे: एतत्सम्यग्दर्शनमनधिगमविपर्ययौ तु मिथ्यात्वम् । ज्ञानमथ पञ्चभेदं तत्प्रत्यक्षं परोक्षं च ॥ २२४ ॥ तत्र परोक्षं द्विविधं श्रुतमाभिनिबोधिकं च विज्ञेयम् । प्रत्यक्षं त्ववधिमनः पर्यायौ केवलं चेति ॥ २२५ ॥ एषामुत्तरभेदविषयादिभिर्भवति विस्तराधिगमः । एकादीन्येकस्मिन् भाज्यानि त्वाचतुर्भ्य इति ॥ २२६॥ सम्यग्दृष्टेर्ज्ञानं सम्यग्ज्ञानमिति नियमतः सिद्धम् । आद्यत्रयमज्ञानमपि भवति मिथ्यात्वसंयुक्तम् ॥ २२७॥ १ तु शब्दात् संशयश्च. For Personal & Private Use Only *O*→ ************** www.jainelibrary.org
SR No.600205
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1932
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size19 MB
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