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________________ प्रशमरति प्रकरणम् ॥६७॥ विवेचनः-ज्यां सुधी मन पारको गुणदोष उघाडवा-प्रगट करवा उजमाळ रहेतुं जणाय अने ए रीते पैशुन्य दोषने सेवी कर्मबंधकारक थतुं जणाय त्यां सुधी पोताना मनने शुद्ध-निर्मळ विचारनी एकतारूप उज्वळ ज्ञान ध्यानमा सतत व्यापारवंत करवुज व्याजबी छे. अहीं कोई शंका करे के 'परदोष प्रकाशन करवानी टेव तो खरेखर निंद्यज छ पण परगुण प्रकाशन करवामां शो बांधो छ ? परगुण कीर्तन केम खोटुं कहेवाय?' तेनुं टीकाकार समाधान करे छे के-'अध्यात्मचिन्तामा मग्न थयेल महापुरुषने परगुण कीर्तन करवानुं पण कंइ प्रयोजन रहेतुं नथी; तेथी परगुणदोष प्रगट करवानी अनिष्ट प्रवृतिथी सदंतर दूर रहीने ते निज आत्मस्वरूपमांज रम्या करे छे.' परंतु याद राखq के आ दशा बहु उंची ज्ञानदशाए पहोंचेलाने माटे छे. स्वरूपरमण तारूप परम अप्रमत्त दशा पामेला माटेज आवो सख्त नियम होवो घटे छे. एवा अध्यात्मवेदी साधुजनो निवृत्तिपरायण होवाथी परप्रवृत्तिमा पडता ज नथी, तेओ परभावमा उदासीन भावे रहे छ तेथी रागद्वेपथी निराळा रही समतारसमाज झीले छे. आ हदे पहोचवा माटे आपणी जेवा प्रमादशील मंद अधिकारी जीवोने तो निजगुण वृद्धि अने दोष हानि करवा माटे अन्य उत्तम आत्माओमा जे श्रेष्ट छता गुणो द्रष्टिगोचर थाय ते प्रशंसवा अने आदरवा योग्य लेखाय छे; परंतु प्रभु आज्ञा मुजब अभ्यासवशात् उच्च आत्मदशा उपर आरुढ थये छते परना दोष A ने परगुण उपेक्षा योग्य बने छे, एम न्यायद्रष्टिधी विचारतां व्याजबी जणाय छे. १८४. विशुद्ध ज्ञानध्यानमा मनने शी रीते व्यापृत करवू ते तथा शास्त्र शब्दनो व्युत्पत्तियुक्त अर्थ हवे शास्त्रकार स्पष्ट रीते बतावे छे: ॥६७॥ P Jain Education International For Personal Private Use Only a inelibrary.org
SR No.600205
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1932
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size19 MB
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