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________________ *.nk प्रशमरात प्रकरणम् ॥६१॥ नथी अने मोक्ष विना बीजु कोइ परम सुख नथी. १७०. विवेचन-माया-शठता-कुटिलता तेथी विपरीत आर्जव या ऋजुता, तेनुं नाम के के जेवू करवं तेवु कहे. कंह पण गोपवयु नहि के ढांकपिछोडो करवो नहि. जे एवी सरलता-प्रमाणिकता साचवे नहि ते ऋजु कहेवाय नहि अने तेनी शुद्धि थइ शके नहीं. जे पोतानाथी थयेला अपराधोने आलोची-निंदी तेनुं योग्य प्रायश्चित्त यथार्थ रीते अंगीकार करे छे तेनी शुद्धि थाय छे. अशुद्ध-मलीन आत्मा क्षमादिक दशविध धर्मने पाराधी शकतो नथी, ते वगर मोक्षप्राप्ति थइ शकती नथी अने मोक्षप्राप्ति वगर एकान्तिक अने प्रात्यन्तिक अक्षय सुखनो लाभ मळतो नथी. तेटला माटे निज पापदोषनी मालोचनादिक करती वखते सरलता-नि:शन्यता राखवी ज जोइए. १७०. हवे शास्त्रकार शौचधर्म केवी रीते पाळवो युक्त छे ते बतावे छेयद्व्योपकरणभक्तपानदेहाधिकारकं शौचम् । तद्भवति भावशौचानुपरोधाद्यत्नतः कार्यम् ॥ १७१॥ भावार्थ-जे उपकरण, आहार, पाणी अने देहने आश्रीने द्रव्यशौच करवो घटे ते भावशौचने वाधक न पहोंचे तेम यत्नथी करवो योग्य छे. १७१. विवेचन-द्रव्य अने भाव एबे प्रकारनो शौच कह्यो छे. सचेतनादि शिष्यादि द्रव्यमा जो अयोग्यतादि दोषो होय तो ते त्याज्य छे. ज्ञानादिकना उपकरणो जो उद्गमादिवडे शुद्ध मळे तो शुचि, अन्यथा अशुचि. माहारपाणी पण Jain Educationder For Personal Private Use Only INr.jainelibrary.org
SR No.600205
Book TitlePrashamrati Prakaranam
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
Author
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1932
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size19 MB
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