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प्रशमरति प्रकरणम्
विवेचन-श्री तीर्थकर देवनां तव वचन उपर अश्रद्धा लक्षण मिथ्यात्व योगे कर्मबंधन थाय छे अने सम्यग्दृष्टि ( समकितवंत ) छतां जे प्राणातिपातादिक पापस्थानको सेवे के ते तथा देशविरति के सर्वविरति अंगीकार कर्या छतां विषय कषाय अने विकथादिक प्रमादवश रहे छे ते पण कर्मबंधन करे छे. कषाय प्रमाद वधारे बळवान् होवाथी ते जूदो गणाव्यो छे. वळी मन वचन अने कायाना असद् व्यापारथी पण कर्मबंधन थाय छे. मनवडे मार्त रौद्रध्यानना परिणामथी, वचनवडे हिंसक अने कठोर वाणी वदवाथी, तेमज कायावडे जयणा रहित अनेक प्रकारनी क्रिया करवाथी कर्मबंधन थाय छे. अर्थात् ए बधांवडे आत्मा दंडाय छे अने तेथी ज जन्म मरणनां दुःख भोगवतां भवभवमा भटकवु पडे छे. एम समजी उपर जणावेलां बधो कर्मनां द्वार जेम बने तेम संवरवा यत्न करवो जोइए. पूर्वोक्त प्रमाद योगेज घणां कर्म | बंधाय छे अने प्रमाद तजवाथी कर्मबंध थतो अटके छे. १५७
___ हवे प्रसंगागत संवर भावनानुं स्वरूप निरुपण करता सता शास्त्रकार कहे छे:FI या पुण्यपापयोरग्रहणे वाकायमानसी वृत्तिः। सुसमाहितो हितः संवरो वरददेशितश्चिन्त्यः ॥ १५८ ॥
भावार्थ-पुन्य पापने नहि ग्रहण करवामां जे मन, वचन, कायानी वृत्ति ते आप्त पुरुषोए उपदिशेलो, अत्यंत समाधिवाळो अने हितकारी संवर चिंतववा योग्य छे. १५८
विवेचन-पुण्यकर्म शातादिरूप अने पापकर्म ज्ञानावरणादिरूप तेवां पुन्यपापथी अलगा रहेवाय एवी जे मनवचन
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