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________________ नवपद K वृत्ति:मू.देव. वृ. यशो ॥१२३॥ 8888888888888 ॥६६॥ परिहासपेसलाए सहीएँ एत्थंतरंमि संलत्तं । नयणंजलीहि पीओ किं न सलोणो जणो अहियं ।।६७।। तो तुहिक्का होउं जाव न किंचिवि करेइ पडिवयणं । भणिया सावट्ठभं ताव इमीएवि तज्जणणी ॥६८।। मा अंब ! कुणह तब्भे एयाएं कए मणमि उब्वेयं । अहयं एयसरूवं वियाणिऊणं कहिस्सामि ॥६९।। सह परियणेण जणणिं विसज्जिउं भणइ पियसहि ! कहेसु । जं दुक्खकारणं तुह अक्कहिए नस्थि पडियारो ॥७०।। लोओऽवि जओ जंपइ एवं 2 थवियाण मोत्तियाणऽत्थ । तीरइ नो काउं जे मुल्लं सुवियक्खणेणावि ।।७।। किञ्च-जहा खारो हारो तुह ससिकरा बाणनियरा, जलं जालाजालं मलयजरसो अग्गिसरिसो । जलद्दा सतावं जणयदि जहा यंगधरिदा, तहा मण्णे नूणं मयणदहणो तावदि तुम ॥७२।। एवं च तुह सरूवं सामण्णेणं वियाणियं चेव । कस्सोवरि तुह चित्तं अणुरत्तं? कहसु ता मज्झ॥७३|| सोऊण सहीवयणं, तो तीए चिंतियं नियमणमि । सच्चमिमीएँ भणियं अक्कहिए जं न पडियारो ॥७४॥ किं चाभणियं मए वियाणियं मह सरूवमेयाए । लिंगेहि ता किमज्जवि, गोविज्जइ चिंतिउं भणइ ।।७५।। सहि ! जाणसि च्चिय तुमं, पहायसमयमि अज्ज | जिणभवणे । पूर्व विरयंतीए जिणिदबिंबस्स सविसेसं ॥७६।। तारायणपरियरिओ, ससिव्व नियमित्तमंडलसमेओ। दिट्ठो पहिट्ठचित्तो, सेट्ठिसुओ नागदत्तोत्ति ॥७७।। तेण ममं नयणखडक्कियाए पविसित्तु चित्तभवर्णमि । अवहरियमविण्णायं, विवेयरयणं अइमहग्धं ।।७८।। तापभिई च न याणे, किं वा जंपामि किं च रोयामि । किं वा हसामि किं वा सुयामि इच्चाइ सव्वाई ॥७९॥ ताए भणियं पियसहि ! संपइ मा ऊसुया तुम होसु । अइरा समीहियत्थो जह होइ तहा तुह करेमि ।।८०॥ एवं भणिऊण तओ नागसिरीए सयासमुवगंतुं । जिणभवणगमणमाई कहिओ तव्वइयरो सयलो ।।८१।। तीएवि निययदइयस्स सोऽवि पडिभणइ अम्ह धूयाए । ठाणेच्चिय अणुराओ, जाओ अहवावि जुत्तमिणं ।।८२।। उत्तमकुलप्पसूया उत्तमठाणमि चेव रज्जति । मोत्तुं महागयंदं, किं करणी जंबुयं महइ ? ॥८३।। ता तह करेमि संपइ जह मज्झ सुयाएँ तेण सह जोगो । संजायइ अणुरूवो रईएँ मयरद्धएणेव ।।८४॥ एवं भणिउं तत्तो, धणयत्तगिहमि उठिऊण गओ। अब्भुट्टिओ सविणयं तेणवि कय उचियपडिवत्ती ।।८५।। पुट्ठो य कि पओयणमालंबेऊण आगया तुझे? । अपओयणा पवित्ती, न होइ जं बुद्धिमंताणं ।।८६।। पियमित्तेणवि भणियं एक्कं तुम्हाण दंसणं चेव । उत्तमजणावलोयणमुत्तमकल्लाणहेउं जं ॥८७।। नीईएवि भणियं-“दट्ठव्या रायसहा, दट्ठव्वा राइपूइया पुरिसा । जइवि न हवंति अत्था तहवि अणत्था खयं जंति ।।८८॥" बीयं पुण मह धूया नागवसू नाम से अस्थि विक्खाया। सा अणुरत्ता गाढं, तुह पुत्ते नागदत्तमि ।।८९।। तीएँ समप्पणहेउं, समागओ ता करेह तह तुम्भे । एयाए नागदत्तो पाणिग्गहणं जह ॥१२३॥ करेइ ॥९०॥ धणदत्तो तो चितइ तं एवं जं जणो भणइ विसमं। एत्तो वग्यो एत्तो य दुत्तडी भीसणायरा ।।९१।। पच्चक्खं (पव्वज्ज) मज्झ सुओ a tional For Personas Private Use Only 280888 Jain Educ w oolbrary.org
SR No.600202
Book TitleNavpad Prakaranam
Original Sutra AuthorJinendrasuri
Author
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year1998
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size8 MB
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