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________________ सिरिचंदरायचरिए ॥१४॥ Jain Education Internat सविलासं कीलेइ, एत्थ पउरजणा पुरजुवईओ य रमेइरे । अणेगविहकीलारस निमग्गे एए पासिऊण एयम्मि चित्ता - iterature सामिणि ! तुह माणसं कडं कलुसिअं जायं ? । सा वीरमई किं पिन वएइ, करयलनिडिय गंडयला सुण्णमणा झायइ । तइया तीए पुण्णपेरिओ को वि सुगो कओ वि समागतूण सहयारतरुसाहाए उबविट्ठो । मिलाrasini वीरमई पेक्खित्ता परवयारतलिलच्छो सो सुगो मणूसभासाए तं भासेइ - सुंदरि ! किं रोएसिं ?, वसंतकलारंग चइऊण किं दुहट्टिआ झायसि ?, नियदुहं मम निवेयसु । सा वीरमई एवं सुगवयणं सोच्चा उड़द पेक्खिअ, मणुअभासाभासगं सुगवरं निरिक्खिऊण जायकोउगा मउणं चइत्ता भासेइ-विहग ! मम मणोगयभावं नच्चा तु किं विहेहिसि ? | फलभक्खी लहू पक्खी, भमंतो गयणे सया । तिरिच्छो सि वणेवासी, विवेगविगलो तुमं ॥ १९ ॥ म दुभंगो सिया तया तुव पुरओ रहस्सकहणं समुइयं । जो मूढमई अण्णेसि नियरहस्सियवृत्तं तं कई सो केवलं पराभवपयं पावेइ । वुत्तं च रहस्सं भासए मूढो, जारिसे तारिसे जणे । कज्जहाणि विवर्त्ति च, लहए हि पए पए ॥२०॥ अ रहस्वत्तं अणुग्धाडियं चैव वरं । तओ सुगो वएइ - महादेवि ! किं एवं संकसे ? पक्खिणो जं जं कज्जं साहिति तं विडं नरावि असक्का । ते सुणिऊण विहियचित्ता सा कहेइ-सुग ! असच्चं वयंतो किं न लज्जेसि ?, साओ नाणविरहि पक्खिजाई कहं दक्खा ? । तया सुगो कहित्था देवि ! जगम्मि पक्खिसरिसो को अस्थि ?, 8 1 5:arfaar i For Personal & Private Use Only पढमो उद्देसो www.jainelibrary.org
SR No.600181
Book TitleSiri Chandrai Chariyam
Original Sutra AuthorKastursuri, Chandrodayvijay
Author
PublisherNemi Vigyan Kastursuri Gyanmandir
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size6 MB
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