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त्रीश
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आद्य पूजा नत्कृष्ट, कल्पावधि तणा, सुख आपे संशय नहीं ए ॥ नावन्नगतिथी होय, फल सम्यक परें, महा नदयपद स्थिति लही ए ॥ ६ ॥ यतः ॥ नकोसं दव्वश्रयं श्राराहिय जाइ अच्चुयं जाव | नावण्यएल पावर, अंतमुदुत्ते निव्वाणं ॥ ७ ॥ मेरुस्स सरिसवस्तय, जत्तिय मित्तंतु अंतरंहोइ ॥ दव्वथयं जावथय, अंतरंत नियंणेयं ॥ ८ ॥ ढाल ॥ सात्विकी राजसीनक्ति, तामसी इतित्रिधा, मन अभिप्राय विशेषथी ए ॥ श्रीजिनवरनी नक्ति, करतां पामीयें, फल मनवंबित जेहथी ए ॥ एए ॥ निर्मलगुणनी श्रेणि, श्री अरिहंतनासुं, मन रातो जेहनोए ॥ जेदी साते धात, रंग न उतरे, उपसर्गे पण तेहनोए ॥ १० ॥ जिनसंबंधी काय, अर्थे सहु धन, आपे जे नव्य प्राणीयाए ॥ करे निरंतर नक्ति, महामहोत्सवें, ते जगमांहे वखाणीयाए ॥। ११ ॥ शक्त्यनुसारें भक्ति, जिनवरनी करे, निःस्पृह आशय मनधरीए | तेह सात्विकी भक्ति, थाये मुनिकहे, लोकक्ष्य फल ये खरीए ॥ १२ ॥ इह लौकिक फल प्राप्ति, देतें जेह करे, अथवा लोक रंजन जीए ॥ अथवा निजवृत्त्यर्थ, कहीयें राजसी, जाणो नक्ति जिनवर ती ॥ १३ ॥ दुसमणनां कय काजें, आपदा टालवा, काजें अज्ञान मनवसीए | अथवा धरी अहंकार, मत्सर मनधरी, नक्ति कहते तामसीए ॥ १४ ॥ रजस्तमोमयी नक्ति, सर्व प्राणीजणी, पांमतां ते सोहेलीए ॥ उत्तम सात्विकी भक्ति, राजसी मध्यमा, जघन्य जाणवी तामसीए ॥ तत्त्व ताजे जाण, ए नवि आदरे, युक्ति करी गुरु परिसीए । १६ ।। अथवा पंच प्रकार भक्ति, जिणंदनी, पुष्पादिक अर्चा करे || राखे श्री जिनंख्य, यात्रा नत्सव, जिन आशा मस्तक घरेए ॥ १७ ॥ दिधा जक्ति जिनराय, अथवा मनधरो, पहेली तो आनोगथीए ॥ अनांनोगथी अन्य, सर्वोत्तम श्राद्य, बीजी बहुगुण योगश्री ॥ १८ ॥ जिन गुएानोपरज्ञात, सुविधि शुभमती, तेहना जाव जला कए ॥
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स्थान०
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