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DEDICA
॥ दोहा ॥
निजगवास साधुने, करे सदा संविभाग ॥ अन्नपानं औषध प्रमुख, प्रापे आणी राग ॥ १ ॥ सुरपर्षदमे अन्यदा, चमरे कीधी प्रशंस || संविभाग कर्त्ता मुनि, नावे एहने अंश ॥ २ ॥ साधुरूप माया करी, सुर सुवेल इनाम ॥ करुणोज्जित आव्यो तिहां, करवा परीक्षा ताम ॥ ३ ॥ श्रीदरिवाहन राजऋषि, श्रीपुर पत्तन ताम ॥ मायावी निसदी करी, आव्यो तेरो गम ॥ ४ ॥ नक्तपान विहरी करी, आव्यो मुनिवर तेह ॥ तपनुं करवा पारगुं, की देह गुणगेह ॥ ५ ॥ ॥ ढालत्रीकजी ॥ मनोहर हीरजी रे । ए देशी ॥
तिमी निसी करि पेगे, अन्न पान सहु दीधुं || पण मनमे नदुवो अबाध ॥ १० ॥ धन धन साधु जी रे, जसु गुण समुद्र अगाध ॥ वलि नवीन आहार निमित्ते, गयो उत्तम मुनिराय ॥ वो हरि गुरु प्रागले आलोइ, बेगे करिय सजाय ॥ ध० ॥ २ ॥ तेटले देवगति प्रति दुसह, निर्वि - वेकी देव || वेदन मुनि देहे नपजावि, निर्दयनी ए टेव ॥ ६० ॥ ३ ॥ वेदन वेग अंग में जाली | महामुनीश्वर केरी ॥ खेद करण लाग्या गुर्वादिक, मनमांहे अधिकेरी ॥ ध० ॥ ४ ॥ वैद्योपदिष्ट श्रीगुरु आझाए, राजऋषीश्वरकाज || औषध शीघ्र गृहिना घरथी, लेइ श्राव्या ऋषिराज ॥ ६० ॥ ५ ॥ राजऋषीश्वर न लिये नेषज, गुरु कहे न लियो केम ॥ हरिवाहन मुनिवर कर जोमि, श्रीगुरुने कहे एम ॥ घ० ॥ ६ ॥ पुण्यपात्र सुपात्र कोइक मुनि, तेहने दीधा पांख ॥ मुजने औषध कर घटे, जो वेदन होय लाख ॥ ६० ॥ ७॥ संविभाग जे दुतो स्वामी, तर्जुनहीं प्राांत ॥ एह शरीर पके तो परुजो, मुजने बे नीरांत ॥ ६० ॥ ॥ चोराशी लाखमांहे जीव ए, कियां शरीर अनंत ॥ पण श्री जिनवर धर्म न पाम्यो, चनगतिमांहि नमंत ॥ ६० ॥ ॥ मूलोत्तर गुणदोष लगावे, खंगे
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