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________________ वीश ॥२॥ Jain Edu निश्चल ध्यान धरत ॥ हृदय वचन पण नवि धर्या, सामो नवि निरखंत ॥ सु० ॥ ए ॥ रूप प्रगट कीधुं शची, राय ऋषीश्वर पाय । स्तवना करि जावे नमी, सुरलोकें ते जाय ॥ सु० ॥ १० ॥ निर्मल परिणामें करी, संयम पाली शुद्ध ॥ समता सागर मुनिवरू, पापाश्रव संरुद्ध ॥ स० ॥ ११ ॥ जिनवर पद संपदतणुं, कर्म करी ऋषिराय ॥ सनत्कुमारे सुर थयो, इंइसमान गणाय ॥ सु० ॥ १२ ॥ तिहांथी चवी विदेहमें, थाशे जिनवर तेह || श्रीहरिवाहन नरपति, लदेशे सुख बेह सु० ॥ १३ ॥ जाखी निर्जराकारणे, समता घणी गरिष्ट || मुहूरतमांहि जे हणे, प्राणिकर्म अरिष्ट || सु० ॥ १४ ॥ हरिवाहन नृपनो सुणी, शुभ ध्यानोपरि वृत्त ॥ श्राराधो पद तेरमुं, कहे जिनदर्ष सचित्त ॥ सु० || १५ || सर्वगाथा ||१०|| इति त्रयोदश स्थानके हरिवाहननृपकथानकम् ॥ ॥ दोहा ॥ हवे चौदमा स्थानकतणुं, सुणजो सुगुण स्वरुप | बार प्रकार तपने विषे, करवो यत्न अनूप ॥ १ ॥ जेदश्री विघ्नपरंपरा, श्राये क्षणमां नाश ॥ कामतणुं बल उपशमे, सुर सदु थाये दास ॥२॥ वश थाये इंद्रियगण, प्रगट करे कल्याण ॥ ऋधिवृद्धि जेही दुवे, करे कर्मनी हा ॥ ३ ॥ कर्म निकाचित खेपवे, लब्धि नृपावे जेह ॥ श्रागममांहे गणधरें, नांख्यं तपफल एह ॥ ४ ॥ कर्म निर्जरावे जिके, अन्नग्लायक साध ॥ सो वर्षे ते नारकी, सहतो नरकाबाध ॥ ५ ॥ कुधा ग्लाय न प्रह समे, யய் पर्युषिताशन होय ॥ अथवा प्राताहार ले, अन्नग्लायक सोय ॥ ६ ॥ ॥ ढाल पहेली || देशी चोपाइनी ॥ तथा चतुर्थन मुनिवरा, कर्म खपावे जो श्राकरां ॥ दुःख जोगवतो ते नारकी, वर्ष हजारे कह्या तेथकी ॥ १ ॥ बठ नक्त तपस्या मुनिजली, थाए कर्मनिर्जरा घणी || वर्ष लाख नारकि nternational For Personal and Private Use Only स्थान० आएशा www.brary.org
SR No.600177
Book TitleVissthanakno Ras
Original Sutra AuthorShravak Bhimsinh Manek
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size7 MB
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