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वीश०
॥७३॥
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| ॥ १० ॥ दोए नमन करे वलि आघा जायं, कीय कर्म बार श्रावय कार्यं ॥ शिर चार वार नमिवो धरवो, त्राय गुप्ति प्रवेशण बे करिवो ॥ ११ ॥ एकवार निषमण करे, पण वीस आवश्यक इणिपरे । | किय कम करे जे सुगुरु जली, ते श्राये शिव सुरलोयधणी १२ ॥ परिकमणुं वे संध्या करवुं, मुनि श्रावकने हमे धर || विधिसुं गुरुने मुखें नेद लह्या, तेहना वलि पंच प्रकार कह्या ॥ १३ ॥ देवसि राज्य एपमिकमणो, इतरीय यावत्कविकं च सुणो ॥ परिख चनमासी संववरीयं, दुइ कर्म निर्जरा लाजकीयं ॥ १४ ॥ यतः ॥ पमिकमणेणं नंते, जीवे किंजायश परिक्रमणं वय बिदाई पिes | पहिय वय वयविदे पुराजीवे निरुदासवे असबलं चरिते व सुपवयण माया सुरुवरुपो अंपुरते सुप्पणिहि विहर5 || तथा आवस एसु ऊहजह कुरा पयतं हीराम इरितं तिविद करणो वऊतो तहतहसे निज्जरा होइ ॥ १ ॥ कायोत्सर्गतणा नेद गलो, चेष्टा अभिनव कायोत्सर्ग सुणा ॥ तत्र व्रत अतिचार विशुद्धि कीजे, चेष्टा कायोत्सर्ग दुकृत जांजे ॥ १५ ॥ जघन्ये अंतर मुहूर्त्ते याये, बीजो कायोत्सर्ग सुगुरु गाये ॥ कष्टाष्टक कर्मजयार्थ करे, श्रीबाहुबल मुनिराजपरे ॥ १६ ॥ आठ कर्म महायाने कीजे, तेमाटे ते जीर्ण काजे ॥ नट्या तप संयम करी सदा, निग्रंथ यया नज| माल मुदा ॥ १७ ॥ चार कपाय नायक जेहने, ते कर्मशत्रु वेद्या तेहने | कानसग्गा अनंग करे, | जय करवा चित्त नबगंद धरे ॥ १८ ॥ नत्कृष्टियो संवत्सरसीमे, अभिनव उत्सर्गे सुनी मे ॥ अध मुहूरत चेष्टा काल कह्यो, जिनदर्ष सदा हियमे नमो ॥ १७ ॥ सर्वगाथा ॥ ५२ ॥
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॥ दोहा ॥
वश्यक दवे, कडुं श्रुत प्रत्याख्यान ॥ तिहां श्रुतप्रत्याख्यानना, दोय जेद सुप्रधान ॥ १ ॥
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स्थान
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