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वीश
॥७१॥
निश्चल मेरु तणि परे, विनय विषे मुनि देख ॥ सं० ॥ प्रत्यक्ष ययो पति नांगनो, मुनिपद नम्यो विशेष ॥ वि० ॥ ए ॥ सं० ॥ जिने जिने चैत्यादिकविषे, विनय करी ए मुनीं ॥ सं० ॥ एहनुं फल शुं पामशे, इम पूढे जोगीन् ॥ वि० ॥ १० ॥ सं । जिन पद इसे नपार्जियुं, सूरीश्वर कहे तास ॥ सं ॥ धरणें मुनि पायें नमी, पहोतो निज आवास । वि० ॥ ११ ॥ सं० ॥ आराधी धनसंयमी, संयम निरतीचार ॥ सं० ॥ अनुक्रमें सहस्रारि थया, सुर ऋद्धि नही अपार ॥ वि० ॥ १२॥ सं० ॥ तिहांथी चवि विदेहमां, धन नामें मुनिराय ॥ सं० ॥ विनय आराधनथी हुशे, जगदीश्वर | जिनराय ॥ वि० ॥ १३ ॥ सं० ॥ इलिपरें चरित्र धन ऋषिनुं, सांजलि दुरितापहार ॥ सं० ॥ विनय करी गुणवंतनो, त्रिभुवनजन सुखकार ॥ वि० ॥ १४ ॥ सं ॥ तीर्थंकरपदवी लही, विनयतो सुपसाय० ॥ कहे जिनदर्ष सहु जणी, विनय करो सुखदाय ॥ वि० ॥ १५ ॥ सं ॥ इतिश्री दशम स्थानके धनमुनिकथा समाप्ता ॥ १० ॥
॥ दोहा ॥
हवे थानक ग्यार, सांगलजो अधिकार ॥ तत्र ननयसंध्या विषे, षट् आवश्यक सार ॥ १॥ सूत्र अर्थसंपद सहित, विधिशुं थइ सावधान ॥ करवा मन निश्चल करी, धरि निर्मल शुभ ध्यान ॥ २ ॥ सामायिक चैनवीसत्यो, वंदण पमीकमाल || कानसग बठ्ठो वलि, आवश्यक पञ्चखाएण ॥ ३ ॥ त्रिविधा सामायिक तिहां, समेकित श्रुत चरित्र ॥ दुविध चरित आगारनो, तिम प्रण गार पवित्र ॥ ४ ॥ श्रपशमिकादिक दें करी, पहिलो पंचप्रकार || श्रुतसामायिक दूसरूं, द्वादश अंग विचार ॥ ५ ॥
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स्थान०
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