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गाहा गूढाहो काव्य कथा विलास ||स|| निजवंश कीधी कुमरी जणी, मन मलीयांहो अंतर नही तास ॥ स० ॥ एक दिन वीरन कहे इशुं, तुं तो कुमरी हो यइ यौवनवंत ॥ स० ॥ तुज रूप कला सफली हुवे, जो थाये हो तुज सरिखो कंत ॥ स० ॥ १० ॥ सरिखे सरिखो सखी जो मले, तो वाधेहो मनमें नबरंग ॥ स० ॥ प्रणगमतो जो प्रीतम मले, देखी देखी हो तो दाऊ अंग ॥ स ॥ ११ ॥ पंकितनें मन पंकित गमे, मूरखनें हो मूरखशुं प्रेम ॥ स० ॥ तुजने तुज सरिखो जोइयें, मूरखशुंहो दिन जाये केम ॥ स० ॥ १२ ॥ यतः ॥ कीजें कंत सुलख्खणो, जग सघलोही जोइ ॥ रमीयें निशिदिन रंगसुं, हीयमे दरषित होइ ॥ १ ॥ ढाल ॥ वलतुं कुमरी कहे सुरा सखी, वर लदी - हो जे लखीयो नाग ॥ स०॥ घरघर सुख दुख लखी या मले, विरा लखीयोहो किम लहीयें सुहाग || |स० ॥ १३ ॥ सहू रूमानी वांबा करे, कोण वांबे हो निखरो जरतार ॥ स० ॥ बवी रातें जे शिर लख्यो, ते लही यै हो निश्चय निरधार ॥ स० ॥ १४ ॥ यतः ॥ बडी रातें जे लख्युं, माथे देश दथ || दैव लखावे विहि लिखे, कुण मज्जेवा समथ्य ॥ १ ॥ ढाल ॥ कृत्रिमस्त्री कुमरीनें कहे, तुज सरिखोहो एक नर गुणवंत ||स|| देखाऊं जो तुं आदरे, मनगमतोहो कुलवंतो कंत ॥ स० ॥ १५ ॥ ॥ १५ ॥ नृप कन्या कहे इहां किहां थकी, तेथे कीधुं हो परगट निजरूप ॥ स० ॥ पामी विस्मय देखी करी, ए तो प्रगट्यो हो सुरकुमर सरूप ॥ स० ॥ १६ ॥ शुं देवतली माया यश, , के सुपनेहो रेखुं जंजाल | स० ॥ के आव्यो बलवा देवता, के तो कोइ हो वे ए इंजाल ॥ स० ॥ १७ ॥ वीरन कहे कुमरी सुणो, श्यो मनमांहो तुं करेरे विचार || स०॥ नृपकुमरी जमरीनी परें, त्यारे मोही हो केतकी अनुसार ॥ स० ॥ १८ ॥ श्रनिप्राय को निज मातनें, रायनें कह्यो हो राणी विर| तंत ॥ स० ॥ परगावी कन्या शुभदिनें, करी उत्सवहो पूगी मन खंत ||१|| मनमान्यो वर कुमरी
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वीश
॥४७॥
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स्थानण
॥४७॥
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