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________________ श्रा०ज० ॥ ८० ॥ ॥ अर्थ ॥ ज्ञान अने श्रानंद तेहिज स्वरूप बे जेनुं, वली श्रदारिकादिक रूपथकी रहि त बे, तथा रक्षक बे छाने सर्वथी उत्कृष्ट तेज बे जेनुं एवा श्रीपरमेश्वर परमात्माने महारो नमस्कार दो ॥ १ ॥ ॥ जेना खरूपने ध्यानरूपिणी दृष्टियें करीनें मन नी शुद्धिने धरता योगीश्वर देखे बे, ते परमेश्वरने हुं स्तनुं हुं ॥ २ ॥ ॥ सर्व प्राणी चिदानंदस्वरूपाय, रूपातीताय तायिने ॥ परमज्योतिषे तस्मै नमः श्रीपर मात्मने ॥ १ ॥ पश्यन्ति योगिनो यस्य, स्वरूपं ध्यानचक्षुषा ॥ दधाना म नसः शुद्धिं तं स्तुवे परमेश्वरम् ॥ २ ॥ जन्तवः सुखमिच्छन्ति, नुः सुखं त विवे जवेत् ॥ त ध्यानात्तन्मनः शुइया, कषाय विजयेन सा ॥ ३ ॥ सत्वियि मात्र सुखनी वांछा करे बे ते संपूर्ण सुख तो जीवने मोक्षमां बे, ते मोनी प्राप्ति ध्या नयी थाय बे, अने ध्यान मननी शुद्धिथी थाय बे, अने मनःशुद्धि कषाय जीतवाथी | थाय बे ॥ ३ ॥ ॥ ते कषायनुं जीतनुं पांच इंडियना जीतवाथी थाय बे, अने ते | इंद्रियजय रूडा श्राचारथी थाय बे, ते रूडो श्राचार जला उपदेशयी होय बे, ते उपदेश Jain Educationa International For Personal and Private Use Only वर्ग १ ॥ ८० ॥ www.jainelibrary.org
SR No.600176
Book TitleLaghu Prakaran Sangraha
Original Sutra AuthorShravak Bhimsinh Manek
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size19 MB
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